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________________ दिव्य जीवन, समर्पित जीवन अच्छा है, जब वह एक घंटे बुरा होगा, तो साधारण बुरा नहीं होगा । तेईस घंटे का बदला एक घंटे में चुकाना पड़ेगा। और जो आदमी तेईस घंटे बुरा है, वह जब एक घंटे के लिए अच्छा होगा, तो साधारण अच्छा नहीं होगा; अतिशय अच्छा हो जाएगा। तेईस घंटे की रुकी हुई अच्छाई बदला मांगती है। कृष्ण इन दोनों की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, वीतराग । वीतराग को कभी छुट्टी नहीं लेनी पड़ती है, क्योंकि वीतराग द्वंद्व में नहीं होता। इसलिए सिर्फ वीतरागी पुरुष चौबीस घंटा एक-रस हो सकता है; न रागी हो सकता है, न विरागी हो सकता है। सिर्फ वीतराग एक-रस हो सकता है। • वीतराग ऐसा होता है, जैसे हम सागर को कहीं से भी चखें, और वह नमकीन है। बस, ऐसा वीतरागी होता है; उसे हम कहीं से भी चखें, वह एक ही स्वाद है उसका। वह वेश्या के गृह में बैठकर भी वही होता है, जो प्रभु के मंदिर में बैठकर होता है। वह वेश्यागृह से भी नहीं डरता, मंदिर के लिए भी लोलुप नहीं होता। असल में इतना आश्वस्त होता है अपने में कि अब उसका न कोई भय है, न कोई लोभ है। इतना आश्वस्त, अपने में इतना भरोसे से भरा हुआ कि छुट्टी का उसे डर ही नहीं है। एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध के एक भिक्षु को, गांव में गया था, एक वेश्या ने निमंत्रण दे दिया। और कहा कि इस वर्षाकाल में भिक्षु, मेरे ही घर चार महीने रुक जाओ! साधारण भिक्षु होता, विरागी होता, दुबारा लौटकर उस घर के सामने न जाता । वेश्या ने सोचा था कि भिक्षु इनकार कर देगा। कहेगा, तू वेश्या ! और मैं तेरे घर रुकूं ? नहीं; यह नहीं हो सकता। कहां भिक्षु, कहां संन्यासी, कहां वेश्या का घर ! उस भिक्षु ने कहा, आ जाऊंगा, लेकिन बुद्ध से आज्ञा लेनी पड़ेगी। तो मैं कल आज्ञा लेकर जवाब दे दूंगा। उस वेश्या ने कहा, और अगर बुद्ध ने आज्ञा न दी ? उस भिक्षु ने कहा, इतना आश्वस्त हूं अपने प्रति कि बुद्ध इनकार नहीं करेंगे। कहा, इतना आश्वस्त हूं अपने प्रति कि बुद्ध इनकार न करेंगे, बुद्ध मुझे जानते हैं। मंदिर और वेश्यागृह में मेरा स्वाद एक ही रहेगा। उसका भय न कर । नियम है, इसलिए आज्ञा मांगनी जरूरी है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं है; मैं भी रुक जा सकता हूं। दूसरे दिन भिक्षुओं के बीच उस भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि एक बहुत मजेदार घटना घट गई। राह पर जाता था, एक वेश्या ने निमंत्रण दिया कि चार महीने वर्षाकाल, आने वाले वर्षाकाल में उसके घर मेहमान बनूं । आज्ञा मांगता हूं। बुद्ध ने कहा, आज्ञा | मांगने की क्या जरूरत? जो संन्यासी वेश्या से डर जाए, वह संन्यासी ही नहीं है । जाओ! जब उसने निमंत्रण दिया, तो विश्राम करो। चार महीने वहीं रुको। अनेक भिक्षुओं के प्राणों में लहरें दौड़ गईं। सुंदरी थी बहुत | वेश्या । सारे भिक्षुओं की नजर उस पर थी। गांव में गुजरते थे, तो किसी न किसी बहाने उस रास्ते जरूर निकल जाते थे; उस रास्ते पर भिक्षा जरूर मांग लेते थे। कौंध गई होंगी बिजलियां । मुश्किल खड़ी हो गई। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह तो अनुचित है, संन्यासी का और वेश्या के घर में रुकना ! और आप आज्ञा देते हैं ? 39 बुद्ध ने कहा, अगर तुम आज्ञा मांगो, तो नहीं दूंगा। क्योंकि संन्यासी और वेश्या से डरे, तो फिर वेश्या जीत गई, फिर हम हार गए। यह तो चुनौती है; चैलेंज है। एक वेश्या ने निमंत्रण दिया और वेश्या नहीं डरती कि संन्यासी उसे बदल लेगा और संन्यासी डरे कि वेश्या उसे बदल लेगी, तो हम हार गए। तुम्हें आज्ञा न दूंगा। लेकिन जिसने आज्ञा मांगी है, उसने कहा कि बड़ी मजेदार घटना घट गई है, एक वेश्या ने निमंत्रण दिया है। उसे आज्ञा है । वह अपने प्रति आश्वस्त है। चार महीने वह भिक्षु वेश्या के घर था । वेश्या जैसा भोजन कराती, वैसा भोजन कर लेता । वेश्या भी बहुत चिंतित हुई । नाचने लगती, तो नाच देख लेता । गीत गाने लगती, तो गीत सुन लेता । वेश्या बहुत चिंतित हुई । सब उपाय उसने किए । अर्धनग्न होकर नाचती, तो भी देखता रहता। बहुत मुश्किल में पड़ी। एक महीना बीता, दो महीने बीते। वेश्या सब तरह की कोशिश करके थक गई; लेकिन न तो उस भिक्षु ने कोई रस लिया, और न | विरस प्रकट किया। न तो उसने यह कहा कि सुंदर; खूब। न तों उसने वाह-वाह की; न उसने यह कहा कि बंद करो, बेकार है, हमें ठीक नहीं लगता; आंख बंद की। नहीं, यह भी नहीं किया। नाचती, देखता । न नाचती, तो कभी यह भी न कहता कि आज नाचो ! आज नाचोगी नहीं? बस, घर में ऐसा रहा, जैसे हो ही न। दो महीने बीत गए, वेश्या उसके पैरों पर गिर गई और उसने कहा कि मुझे राज बताओ। तुम तो कंपते ही नहीं। यहां न वहां । अगर | तुम विपरीतता भी दिखाओ, तो मैं कुछ कोशिश करूं। अगर तुम यह भी कहो कि यह गलत है, तो भी कुछ रास्ता बने। तुम कुछ तो कहो। तुम कोई वक्तव्य तो दो ! तुम कोई निर्णय तो लो। तुम इस
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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