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________________ गीता दर्शन भाग-26 थी। कात्यायिनी ने कहा कि जो धन तुम्हें व्यर्थ हो गया, तो तुम मुझे वीतराग का अर्थ है, जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु। किसलिए दे जाते हो? अगर व्यर्थ है, तो बोझ मुझे मत दे जाओ। वीतराग का अर्थ है, जिसका चित्त किसी भी चीज से, किसी भी और अगर सार्थक है, तो तुम भी छोड़कर क्यों जाते हो? . कारण से बंधा हुआ नहीं है। मित्रता से भी बंधा हुआ नहीं; शत्रुता कात्यायिनी ने बड़ा ठीक सवाल उठाया। अगर व्यर्थ है, राख है, | से भी बंधा हुआ नहीं। धूल है, तो मुझे देकर इतने गौरवान्वित क्यों होते हो? अगर सार्थक | | और ध्यान रहे, मित्र भी बांध लेते हैं और शत्रु भी बांध लेते हैं। है, तो छोड़कर कहां जाते हो? रुको! अगर सार्थक है, तो हम | | मित्रों की भी याद आती है, शत्रुओं की भी याद आती है। सच तो साथ-साथ भोगें। और अगर व्यर्थ है, तो मुझे भी उसी धन की यह है, शत्रुओं की थोड़ी ज्यादा आती है। मित्रों को भूलना आसान; खबर दो, जो सार्थक है, जिसकी खोज में तुम जाते हो। | शत्रुओं को भूलना कठिन है। राग को भूलना आसान; विराग को याज्ञवल्क्य मुश्किल में पड़ गया होगा। अभी याज्ञवल्क्य सिर्फ | | भूलना कठिन है, बहुत कठिन है। प्रेम को भूलना आसान; घृणा विराग में जा रहा था। कात्यायिनी ने उसे वीतराग के डायमेंशन में, को भूलना कठिन है। शत्रु पीछा करते हैं, छाया की भांति पीछे होते वीतराग के आयाम में उन्मुख किया। अभी उसे सार्थक था धन, | हैं और बदला लेते हैं। सब विराग बदला लेता है। तो बांटने को उत्सक था। अभी कछ न कछ अर्थ था उसे इसलिए एक बहत अदभत घटना घटती है मनष्य के मन में। धन में। छोड़ता था जरूर, लेकिन सार्थक था। अभी वह विराग की और वह घटना यह घटती है कि जो धन को पकड़ते हैं, वे दिशा में मुड़ता था। लेकिन कात्यायिनी ने उसे एक नई दिशा में, कभी-कभी इंटरवल्स में, बीच-बीच में छुट्टी भी लेते हैं। एक नए आयाम का इशारा किया। उसने कहा कि छोड़कर जाते हो, बीच-बीच में उनका मन आता है, छोड़ो सब; कुछ सार नहीं है। देकर जाते हो, गौरवान्वित हो कि काफी दे जा रहे हो, तो फिर तुम तेईस घंटे दुकान पर होते हैं; कभी घंटेभर मंदिर भी हो आते हैं। छोड़कर जाते नहीं। धन तुम्हें सार्थक है; धन तुम्हें पकड़े ही हुए है! | लेकिन ध्यान रहे, इससे उलटी घटना भी घटती है। जो चौबीस कृष्ण कहते हैं, जो राग के पार हो जाता है-बियांड। वीतराग | | घंटे मंदिर में रहता है, उसका मन भी घंटे दो घंटे को बाजार में आ का अर्थ है, बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं। वीतराग का अर्थ | | जाता है। वह भी छुट्टी लेता है। भला हिम्मत न हो, खुद न आ पाता है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त विपरीत आसक्ति में हो, लेकिन मन आ जाता है। होता है, पार नहीं होता। वह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर चला जाता विरागी भी छुट्टी पर होते हैं। चौबीस घंटे विरागी होना मुश्किल है; दोनों ध्रुव के पार नहीं होता। वह एक द्वंद्व के छोर से द्वंद्व के है। चौबीस घंटे रागी होना मुश्किल है। क्योंकि मन थक जाता है, दूसरे छोर पर सरक जाता है, लेकिन द्वंद्वातीत नहीं होता। ऊब जाता है एक ही चीज से। इसलिए जो रागी हैं, वे अक्सर विराग कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को | के सपने देखते हैं; और जो विरागी हैं, वे राग के सपने देखते हैं। उपलब्ध हो जाता है। वीतराग, वीतभय, वीतक्रोध; जो इन सबके | जो रागी हैं, वे कई बार सोचते हैं, सब छोड़-छाड़कर चले जाएं; पार हो जाता है। वीतलोभ। वह तीसरा ही आयाम है। थर्ड | सब बेकार है। जो विरागी हैं, वे कई बार सोचते हैं कि बड़ी मुश्किल डायमेंशन है। में पड़ गए; नाहक छोड़-छाड़कर आ गए। इसमें कुछ सार नहीं है, तीन आयाम हैं जगत में। किसी चीज के प्रति राग, अर्थात उसे इस छोड़ने-छाड़ने में कुछ अर्थ नहीं है। पास रखने की इच्छा। किसी चीज के प्रति विराग, अर्थात उसे पास | । मन द्वंद्वों में डोलता रहता है। विश्राम चाहता है मन। इसलिए बुरे न रखने की इच्छा। और किसी चीज के प्रति वीतराग, अर्थात वह | आदमियों के भी अच्छे क्षण होते हैं, और अच्छे आदमियों के भी पास हो या दूर, अर्थहीन; उससे भेद नहीं पड़ता। बरे क्षण होते हैं। ऐसा बरा आदमी खोजना मश्किल है. जिसके बुद्ध ने कहा है, राग का अर्थ है, प्रियजन घर आता, सुख मालूम | अच्छे क्षण न होते हों। और कभी-कभी बुरे आदमी अच्छे क्षणों में पड़ता। अप्रियजन घर आ जाता, तो दुख मालूम पड़ता। मित्र घर साधुओं को पार कर जाते हैं। और अच्छे आदमी भी खोजने से जाता, तो दुख मालूम पड़ता। शत्रु घर से जाता, तो सुख मालूम | मुश्किल हैं, जिनके बुरे क्षण न होते हों। और अच्छे आदमी भी, पड़ता। शत्रु के प्रति तो सभी विरागी होते हैं; मित्र के प्रति सभी रागी जब उनके बुरे क्षण होते हैं, तो असाधुओं को पार कर जाते हैं। होते हैं। उसका कारण है। क्योंकि जो आदमी तेईस घंटे कोशिश करके
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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