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ॐ मैं मिटा, तो ब्रह्म
चिकित्सा के विकास ने मृत्यु की दर कम कर दी। इसलिए अब | आ जाए। संतति निरोध और बर्थ कंट्रोल के लिए हमें कोशिश करनी पड़ती | जब सुख आए, तो भीतर मैं जानूं कि यह सुख आया, लेकिन है। उधर मृत्यु की दर कम हुई, इधर जन्म की दर कम करनी पड़ेगी। | मैं सुख नहीं हूं। क्योंकि अगर मैं सुख हूं, तो दुख फिर कभी नहीं
जिंदगी विरोधों के बीच संतुलन है। और जिंदगी विरोध से | आ सकता। लेकिन थोड़ी देर में दुख आ जाता है। जब दुख आए, चलती है। सारी जिंदगी द्वंद्व है। और सारी जिंदगी के आधार में मन | तो मैं जानूं कि यह दुख आया, लेकिन मैं दुख नहीं हूं! क्योंकि अगर है, माइंड है।
मैं दुख हूं, तो फिर सुख कभी नहीं आ सकता। लेकिन अभी सुख " इसलिए जो लोग, जैसे मार्क्स, एंजिल्स और लेनिन और माओ, था और फिर सुख आ जाएगा। जो लोग मन के ऊपर आत्मा में भरोसा नहीं करते, वे लोग सुख आता है, दुख आता है; घृणा आती, प्रेम आता; मित्रता डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की बात करते आती, शत्रुता आती; हार होती, जीत होती; सम्मान मिलता, हैं। वे कहते हैं, पदार्थ द्वंद्व से चलता है। इसलिए वे वर्ग-संघर्ष की अपमान मिलता-सब द्वंद्व हैं। इनके पार अगर मैं तीसरे को बात करते हैं. कि समाज भी दंद्र से चलेगा। गरीब को अमीर के पकडकर स्मरण से भर जाऊं कि मैं इन दोनों से भिन्न. दोनों से खिलाफ लड़ाना पड़ेगा, तब समाज चलेगा। सब समाज द्वंद्व है। अन्य, दोनों से अलग जानने वाला हूं, देखने वाला हूं, विटनेस हूं, अगर मन ही सब कुछ है, तो जिंदगी में संघर्ष के अलावा और कुछ | साक्षी हूं, तो मैं द्वंद्व के पार हो जाता हूं। भी नहीं है।
__ कृष्ण कहते हैं, जो द्वंद्व के पार हो जाता है अर्जुन, वह समस्त लेकिन कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत, द्वंद्व के बाहर, द्वंद्व के पार, | कर्मों के बंधन से छूट जाता है। बियांड डायलेक्टिक्स, दो के बाहर होता है अर्जुन जो, वही केवल | __ असल में बंधन मात्र द्वंद्व के हैं। निर्द्वद्व स्वतंत्र है। द्वंद्व में घिरा, कर्म के बंधन से मुक्त होता है।
बंधन में है। घृणा के भी बंधन हैं, प्रेम के भी बंधन हैं। सम्मान के लेकिन दो के बाहर कौन हो सकता है? मन तो नहीं हो सकता। | भी बंधन हैं, अपमान के भी बंधन हैं। और प्रशंसा के भी बंधन हैं, मन तो जब भी रहेगा, दो के भीतर ही रहेगा। दो के बाहर, मन को | | और निंदा के भी। मित्र भी बांध लेते हैं, और शत्रु भी। अपने भी भी जो जानता है, वही हो सकता है; मन को भी जो पहचानता है, | बांधते हैं, और पराए भी। सब बांध लेता है। हार भी बांध लेती है, वही हो सकता है। घृणा द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकती। प्रेम द्वंद्व के | और जीत भी। बाहर नहीं हो सकता। लेकिन जो प्रेम और घृणा को जानने वाला ___ लेकिन जो दोनों को जानता है और दोनों के पार अपने को देख ज्ञाता है, नोअर है, वह बाहर हो सकता है।
पाता है, वह बंधन के पार हो जाता है। उसे फिर कोई भी नहीं बांध ___ मैं बैठा हूं। सुबह हो गई, सूरज निकला। देखा कि रोशनी भर पाता। बांध भी लो, तो भी नहीं बांध पाते। बंधे हुए भी वह बंधन गई चारों तरफ। फिर सांझ आई, सूरज डूबा। देखा कि अंधेरा छा | | के बाहर ही होता है, क्योंकि वह जानता है, मैं अलग, मैं भिन्न, गया चारों तरफ। फिर सुबह हुई, फिर सूरज निकला, फिर प्रकाश |में पृथक। फैल गया। मैंने देखा चारों तरफ अंधेरे को आते, मैंने देखा चारों | यह जो पृथकता का बोध है, यह जो साक्षी का भाव है, वह तरफ प्रकाश को आते। मैंने देखा जाते प्रकाश को; मैंने देखा जाते | द्वंद्वातीत ले जाता है। अंधेरे को। लेकिन मैं जिसने प्रकाश को भी देखा और अंधेरे को | जो मिल जाए, जो प्राप्त हो, उसमें तृप्त, चित्त के द्वंद्वों के पार भी देखा-न तो प्रकाश हूं और न अंधेरा हूं। मैं दोनों से अलग | जो व्यक्ति है, वह कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं पड़ता तीसरा हूं, दि थर्ड।
है-ऐसा कृष्ण, अत्यंत ही वैज्ञानिक बात, अर्जुन से कहते हैं। यह जो तीसरा है, अगर इसका मुझे स्मरण आ जाए, तो मैं दो के बाहर हो जाऊं। तीसरे की याद आ जाए, तो दो के बाहर हुआ जा सकता है। यदि तीसरे का स्मरण आ जाए, तो दो के बाहर हुआ
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। जा सकता है।
यज्ञायाचरतः कर्म समय प्रविलीयते ।। २३ ।। मन के द्वंद्व के बाहर वही हो सकेगा, जिसे तीसरे का स्मरण | क्योंकि आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले,
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