SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-20 को लगती है? भूख आपको लगती है या आपको पता चलती है? ___ इंद्रियों से यह जोड़ तोड़ देना पड़ेगा। इसे तोड़ने के दो उपाय हैं। इन दोनों में फर्क है। भूख का लगना एक बात है, भूख का पता | | एक तो निरंतर खयाल रखें कि जो इंद्रियों को हो रहा है, वह इंद्रियों लगना दूसरी बात है। आपके पेट में जब भूख लगती है, तब | को हो रहा है; आपको नहीं हो रहा है। इसकी रिमेंबरिंग चाहिए आपको पता चलता है कि भूख लगी है। लेकिन भूख तो पेट को | | निरंतर, सतत स्मरण कि भूख पेट को लगी है; दर्द पैर में हो रहा ही लगती है। और पेट को जरा से में धोखा दिया जा सकता है। | है; कांटा हाथ में चुभा है; शरीर थक गया है। निरंतर, जिन-जिन और आपकी भूख मिट जाएगी। एक शक्कर की गोली आपके पेट | क्रियाओं के पीछे आप निरंतर मैं का उपयोग करते हैं, बड़ी कृपा में डाल दी जाए, पेट धोखे में आ जाएगा। भूख मर जाएगी। आप | होगी, उसके पीछे उनसे संबंधित इंद्रियों का उपयोग करें। कहें कि कहेंगे, भूख खतम हो गई। शक्कर की गोली से भूख खतम नहीं पैर थक गया है। होती। सिर्फ शक्कर की गोली से पेट खबर देना बंद कर देता है कि और हैरानी होगी, यह बात अनुभव करने से फर्क मालूम पड़ेगा। भूख लगी है। खबर आपको नहीं मिलती; भूख खतम हो जाती है। जब आप कहेंगे, पैर थक गया है, तो इसका परिणाम चित्त पर भूख तो लगती है पेट को। पेट की इंद्रिय को भूख लगती है। | बिलकुल दूसरा होगा, बजाय उसके, जब आप कहते हैं, मैं थक लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी। कान को सुनाई पड़ता है, गया है। मैं बहत बडी चीज है। पैर बहुत छोटी चीज है। पैर के थकने आप तो सिर्फ जानते हैं कि कान को सुनाई पड़ा। लेकिन आप कहते | से जरूरी नहीं है कि मैं थक जाऊं। मैं बहुत ही और हूं। पैर से अपने हैं, मुझे सुनाई पड़ता है। आंख से दिखाई पड़ता है, आपको तो पता को थोड़ा अलग करके देखना शुरू करें। इंद्रियों से थोड़ा दूर खड़े चलता है कि आंख को दिखाई पड़ता है। आपको दिखाई नहीं | होकर देखना शुरू करें। जैसे-जैसे यह समझ गहरी होगी, वैसे-वैसे पड़ता। लेकिन आप कहते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। | लगेगा, इंद्रियां अपना काम करती हैं। मैं कोई कर्ता नहीं हूं। प्रत्येक इंद्रिय से हम अपने को जोड़ लेते हैं। असल में बहुत एक झेन फकीर से किसी ने जाकर पूछा, आपकी साधना क्या निकट है इंद्रिय, इसलिए जोड़ना आसानी से हो जाता है। आप है? उसने कहा, जब भूख लगती, तब मैं खाना दे देता हूं। जब नींद चश्मा लगाए हुए हैं। चश्मे से आपको दिखाई पड़ता है, तो भी आप | आती है, तो मैं बिस्तर लगा देता हूं। तो उस आदमी ने पूछा, सोचते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। चश्मे को दिखाई पड़ता है। चश्मे किसके लिए? तो झेन फकीर ने कहा, जिसको नींद आती है, उसके से आंख को दिखाई पड़ता है। आंख से आपको पता चलता है कि | लिए; जिसको भूख लगती है, उसके लिए। उस आदमी ने पूछा, दिखाई पड़ रहा है। लेकिन चश्मा अलग हटाकर देखें, तब आपको आप किस तरह की बातें कर रहे हैं! इस मकान में, इस झोपड़े में पता चलेगा। तब आपको पता चलेगा कि नहीं, अब मुझे दिखाई आप अकेले ही दिखाई पड़ते हैं, और तो कोई भी नहीं है! नहीं पड़ रहा। आप तो वहीं हैं, बीच से चश्मा हट गया। आंख बंद उस फकीर ने कहा, जब मैं अज्ञानी था, तब मुझे भी एक ही कर लें; आप तो अब भी वहीं हैं, जहां आंख खुली थी तब थे | | दिखाई पड़ता था इस झोपड़े में। अब मुझे दो दिखाई पड़ते हैं। एक देखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई आंख से पड़ता है। मैं. जो जानने वाला है और एक वह. जो करने वाला है। जिसे आंख यंत्र है, उपकरण है। सारी इंद्रियां काम करती हैं और आप | भूख लगती है, वह मैं नहीं हूं। जिसे नींद आती है, वह मैं नहीं हूं। अपने को जोड़ लेते हैं कि मैं। मुझे दिखाई पड़ता है; मुझे सुनाई | | जो थक जाता है, वह मैं नहीं हूं। जो देखता है, जो सुनता है, वह पड़ता है; मुझे भूख लगती है; मुझे प्यास लगती है। | मैं नहीं हूं। अब इस कमरे में एक वह भी है, जो थकता है; और ते हैं. जो उस एक तत्व को जान लेता है. वह यह भी एक वह भी है. जो कभी नहीं थका। एक वह भी. जो दखी और जान लेता है, इंद्रियां अपना काम कर रही हैं, मैं कर्ता नहीं हूं। और | | सुखी होता रहता है और एक वह भी, जो कभी दुखी और सुखी इसलिए कई बार ऐसा भी हो जाता, कई बार ऐसा भी हो जाता है | नहीं हुआ। कि इन इंद्रियों के साथ निरंतर तादात्म्य के कारण आप अपने को | | कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति इंद्रियों के काम को इंद्रियों का काम यही समझ लेते हैं कि मैं इंद्रियों का जोड़ मात्र हूं। इंद्रियों का जोड़ समझता है। जोड़ता नहीं अपने को, अलग जानता है। जितना यह मात्र! फिर उसका कभी पता नहीं चलता, जो जोड़ के पार है। जो | | ज्ञान बढ़ता जाता है कि मैं पृथक हूं, उतना ही इंद्रियां मालिक नहीं ट्रांसेंडेंटल है, उसका कभी पता नहीं चलता। . | रह जातीं; गुलाम हो जाती हैं। उतना ही शरीर पर वश, शरीर की क | 330
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy