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________________ मन का ढांचा-जन्मों-जन्मों का मालकियत आ जाती है। मैंने सुना है, एक दिन एक आदमी ने अपने मकान को पोतने के लेकिन हम सारे लोग दुनिया में दूसरों की मालकियत करने में | | लिए एक आदमी को ठेका दिया है। दो रुपया घंटे से वह मकान समय गंवा देते हैं, अपनी मालकियत का खयाल ही नहीं आ पाता।। | पोतने का ठेका देकर गया है। जब सांझ को वापस लौटा, तो देखा दूसरों की मालकियत! लेकिन ध्यान रहे, दूसरों की कितनी ही कि वह आदमी झाड़ के नीचे आराम से लेटा हुआ है। उसने पूछा मालकियत आप कर लें, मालिक आप कभी न हो पाएंगे। मालिक | कि क्या कर रहे हो? मकान की पोताई नहीं कर रहे? उसने कहा तो सिर्फ वही हो सकता है, जो अपना मालिक हो जाता है। और | | कि कर रहा है; देखो! मकान की तरफ देखा, एक दूसरा आदमी दूसरों के जो मालिक होते हैं, वे गुलामों के भी गुलाम होते हैं। | पोताई कर रहा है! उस मकान के मालिक ने पूछा कि मैं समझा __मैंने सुना है, एक आदमी एक गाय को रस्सी से बांधकर एक नहीं! तो उसने कहा कि मैंने दो रुपया घंटे के हिसाब से इस आदमी सड़क से गुजरता है। एक फकीर भी निकल रहा है वहां से। उस को काम करने के लिए रखा है। उस मकान मालिक ने पूछा, बड़े फकीर ने अपने शिष्यों से कहा कि देखते हो तुम, यह एक आदमी | | पागल हो! इससे तुम्हें फायदा क्या होगा? क्योंकि दो रुपए घंटे पर और यह एक गाय दोनों बंधे हैं। जो गाय को बांधे हुए था, उसने | मैंने तुम्हें रखा है। दो रुपए घंटे पर तुमने इसे रखा है। फायदा क्या कहा, माफ करिए, आप गलत बोलते हैं। मैं नहीं बंधा है; मैं गाय है? उसने कहा कि कभी-कभी मालिक होने का मजा हम भी लेना को बांधे हुए हूं। उस फकीर ने कहा, देखते हो शिष्यों, ये दोनों चाहते हैं! हम जरा वृक्ष के नीचे लेटे हैं। इट इज़ वर्थ टु बी दि बास एक-दूसरे से बंधे हैं। उस आदमी ने कहा, गलत बोलते हैं आप। | फार सम टाइम। कभी थोड़ा बास हो जाने में थोड़ा मजा आता है। मैं गाय से नहीं बंधा हूं; गाय मुझसे बंधी है। मैंने गाय को बांधा आज दिनभर से लेटे हैं और आज्ञा दे रहे हैं कि यह कर, ऐसा कर। हुआ है। उस फकीर ने कहा, अच्छा तो तुम गाय को छोड़ दो। फिर फायदा तो कुछ भी नहीं, उसने कहा। दिनभर गंवाया, लेकिन जरा देखें, कौन किसके पीछे भागता है! जो पीछे भागेगा, वही गुलाम मालिक होने का मजा! है, उस फकीर ने कहा। और मैं तुमसे कहता हूं, गाय बांधी गई है; । जिंदगी के आखिर में ऐसी हालत न हो कि पाएं कि जिंदगी तुम बंधे हो। गाय को तुम जबर्दस्ती बांधे हो, खुद को तुम स्वेच्छा | | गंवायी, थोड़ा मालिक होने का मजा लिया। से बांधे हए हो। गाय मजबरी में गलाम है: तम अपनी इच्छा से यह आदमी मढ मालम पडता है। लेकिन इससे कम मढ आदमी गलाम हो। छोड़ो गाय को, जरा हम भी देखें कि कौन किसके पीछे खोजना मश्किल है। यह आदमी मढ मालम पड़ता है: आप हंसते भागता है! उस आदमी ने कहा कि यह तो नहीं हो सकेगा। गाय | हैं इस पर। लेकिन जिंदगी के आखिर में अपना हिसाब करीब-करीब खरीदकर ला रहा हूं। तो उसने अपने शिष्यों से कहा कि देखते हो! ऐसा पाएंगे कि थोड़ा बास होने का मजा लिया! हाथ में कुछ होगा अभी जो मैंने कहा था, वह गलत था। अब मैं तुमसे कहता हूं, गाय नहीं। हाथ में तो केवल उनके कुछ होता है, जो अपने मालिक। इस आदमी से नहीं बंधी है, यह आदमी गाय से बंधा है। यह तो कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति जो तत्व को जान लेता, इंद्रियां आदमी गाय का गुलाम है। अपना काम करती हैं, ऐसा जान लेता, और ऐसा जानते ही दूर खड़ा __ असल में जिसको हम बांधते हैं, उससे हम बंध जाते हैं। जिसको | | हो जाता है इंद्रियों के सारे धुएं के बाहर। इंद्रियों की बदलियों के हम गुलाम बनाते हैं, उसके हम गुलाम बन जाते हैं। इसलिए इस | बाहर सूरज के साथ एक हो जाता है। दुनिया में जितने ज्यादा गुलाम जिस आदमी के पास, उतनी बड़ी ___ वह जो सूरज के साथ एक हुआ है, वह मालिक है। उसकी कोई उसकी गुलामी। लेकिन दूसरे पर मालकियत का मजा बड़ा है। | गुलामी नहीं है। ऐसा व्यक्ति ही निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है। और ध्यान रहे, दूसरे की मालकियत का मजा केवल उन्हीं को | | ऐसे व्यक्ति के आनंद की कोई सीमा नहीं है। ऐसे व्यक्ति की मुक्ति है, जिन्होंने अपनी मालकियत का रस नहीं जाना। जिसने एक बार | का कोई अंत नहीं है। और जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक जीवन भी अपनी मालकियत का रस जाना, वह इस दुनिया में किसी का हम गंवा रहे हैं; तब तक हम जीवन से कुछ कमा नहीं रहे हैं। चाहे मालिक न होना चाहेगा। क्योंकि वह जानता है कि किसी का | हम कितना ही कमाते हुए मालूम पड़ रहे हों, हम सिर्फ गंवा रहे हैं। मालिक होना, अपनी गुलामी के आधार रखना है। लेकिन हम बड़ा | यहां ढेर लग जाएगा धन का, और वहां जिंदगी चुक जाएगी। यहां रस लेते हैं। सामान इकट्ठा हो जाएगा, और आदमी खो जाएगा। और यहां 331
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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