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गीता दर्शन भाग-20
यहां-वहां खर्च किया, तो अपनी नियति को पूरा नहीं किया जा दिशा ठीक है। सकता।
ऐसे ही टटोलना पड़ता है स्वधर्म को भी, जैसे कोई बगीचे को इसलिए कृष्ण कहते हैं, स्वधर्मरूपी यज्ञ में!
अंधेरे में खोजता हो। ठंडक, सुगंध...। यह स्वधर्मरूपी यज्ञ बहुत ही गहरी मनोवैज्ञानिक धारणा है। | अगर ठंडक कम होती जाए, सुगंध क्षीण होती जाए, तो जानना मनुष्य ने अपने इतिहास में जो भी गहरे से गहरे मनोवैज्ञानिक सत्य चाहिए कि मैंने कोई विपरीत मार्ग पकड़ लिया। शांति बढ़े, तो खोजे हैं, उनमें स्वधर्म का सत्य सर्वाधिक गहरा है। स्वधर्म के निकट चल रहे हैं आप। अशांति बढ़े, तो स्वधर्म से च्युत
यह पृथ्वी आज इतने दुख से भरी दिखाई पड़ती है, उसका मौलिक हो रहे हैं आप। शांति मापदंड है। कारण स्वधर्म से च्युत हो जाना है। कोई भी आदमी वही नहीं हो रहा फिर शांति घनी हो, तो सुवास की तरह आनंद की झलक भी है, जो वह होने को है। हर आदमी कुछ और होने में लगा है! हम मिलनी शुरू हो जाती है। तब समझना कि ठीक है मार्ग। अब दौड़ सब कुछ और होने में लगे हैं, जो हम नहीं हो सकते हैं।
सकते हैं। अब निश्चित हो नाव को खे सकते हैं। अब बेफिक्र हो कृष्ण कहते हैं, यह भी बड़े से बड़ा यज्ञ है अर्जुन, अगर तू इतना हवाओं के रुख में नाव को छोड़ सकते हैं। अब नदी ठीक, अब भी पूरा कर ले, या कोई भी पूरा कर ले, तो भी प्रभु को उपलब्ध मार्ग ठीक। अब पहुंच जाएंगे वहां। हो जाता है, परम अवस्था को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन हम जीवन में कभी इसका विचार ही नहीं करते। हम स्वधर्म; कैसे पहचानें, क्या है स्वधर्म? कैसे जानें, मैं क्या होने उलटा ही करते हैं। हम जो कर रहे होते हैं, अगर उसमें अशांति को पैदा हुआ हूं? कैसे जानें कि मैं कुछ और होने में तो नहीं लगा मिलती है, तो उसी को और जोर से करते हैं। सोचते हैं, शायद पूरी हूं? कैसे पहचानें कि मैंने किसी परधर्म को ही तो नहीं पकड़ | ताकत से नहीं कर रहे हैं; और ताकत से करेंगे, तो शांति मिल लिया है?
जाएगी। और अशांति मिलती है, तो और सारी ताकत जुटाकर लग पहचान हो सकती है। सूक्ष्म होंगे पहचान के सूत्र। लेकिन | जाते हैं। अंततः परिणाम यह होता है कि हम स्वधर्म को पहुंच नहीं दो-तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा।
पाते। परधर्म को पहुंच नहीं सकते। जीवन एक वर्तुलाकार चक्कर पहली बात, अगर आप दुखी हैं जीवन में, तो पक्का समझ लेना होकर खो जाता है। अवसर मिलता है और नष्ट हो जाता है। कि आप स्वधर्म से च्युत हुए हैं, स्वधर्म से च्युत हो रहे हैं। क्योंकि तो एक तो शांति बढ़े, आनंद बढ़े। जहां भी स्वधर्म की यात्रा होती है, वहीं आनंद फलित होता है। दूसरा, यदि कोई स्वधर्म के साथ-साथ चल रहा हो, तो उसके
अशांत हों यदि. तो जान लेना कि परधर्म के पीछे चल रहे हैं। जीवन में स्वीकार का भाव बढ़ता जाएगा, अस्वीकार का भाव कम रुक जाना, पुनः सोच लेना। फिर से विचार कर लेना, रिकंसीडर होता जाएगा। उसकी एक्सेप्टिबिलिटी बढ़ती जाएगी। वह चीजों कर लेना कि जो यात्रा चुनी, जो कर रहे हैं, उससे दुख और पीड़ा, | को स्वीकार करने लगेगा। क्योंकि जिसके भीतर भी जरा-सा अशांति बढ़ती है, तो निश्चित ही वह मार्ग मेरा नहीं है। आनंद आया, उसके बाहर स्वीकृति आने लगती है; वह चीजों को
जैसे कोई बगीचे के पास जाता हो। बगीचा दिखाई नहीं पड़ता स्वीकार करने लगता है अर्थात संतुष्ट होने लगता है। अभी, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, ठंडी हवाएं छूने लगती अगर स्वधर्म के अनुकूल न चलता हो, तो असंतुष्ट होता चला हैं, स्पर्श करने लगती हैं। जानता है कि ठीक रास्ते पर हूं। बगीचा | जाता है; अस्वीकार करने लगता है। हर चीज के प्रति दुश्मन की दिखाई नहीं पड़ता. लेकिन कहीं पास ही होगा। दिशा तो कम से | | दृष्टि आ जाती है, दोस्त की नहीं। हर चीज के प्रति इनकार, नो; कम ठीक होनी ही चाहिए। और अगर ठंडक हवाओं की बढ़ती यस, हां का भाव नहीं। हर चीज के प्रति इनकार हो जाता है। जाए एक-एक कदम बढ़ने से, तो निश्चित हुआ जा सकता है कि | तो अगर आपकी जिंदगी में यस की जगह नो की संख्या ज्यादा मैं ठीक दिशा में बढ़ रहा हूं; बगीचा करीब ही आता होगा। फिर | हो; हां कम चीजों को कहते हों, न ज्यादा चीजों को कहते हों;
और करीब आकर ठंडक के साथ-साथ सुगंध भी मिलने लगती | स्वीकार कम को करते हों, अस्वीकार ज्यादा को करते हों; संतोष है, तब और भी निश्चय हो जाता है कि मैं और भी पास आ रहा | | कम से मिलता हो, असंतोष ज्यादा से मिलता हो तो ध्यान रखना हूं। अभी भी बगीचा दिखाई नहीं पड़ता; अभी भी दूर है; लेकिन कि स्वधर्म के अनुकूल नहीं जा रही है यात्रा।
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