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________________ गीता दर्शन भाग-28 मेरे एक मित्र हैं। बड़े राजनैतिक नेता हैं। लोगों ने उनसे अनशन इस फर्क को ठीक से समझ लें। इसलिए पहले उन्होंने कहा, करवा दिया। लेकिन कुछ हालात ऐसे हो गए गांव के कि अनशन | अनन्य रूप से जो मेरी शरण; फिर कहा कि जो ज्ञानरूपी तप से तो उन्होंने किया, लेकिन लोग ज्यादा देखने-दाखने नहीं आए। मैं शुद्ध हुए हैं। उनके गांव गया था, उनको मिलने गया। पता चला अनशन करते ज्ञानरूपी तप सदा ही समर्पित है। ज्ञानरूपी तप के पीछे यह भाव हैं, तो मैंने कहा, देख आऊं। बड़ी मुश्किल में होंगे। नहीं है कि मैं तप कर रहा हूं; ज्ञानरूपी तप के पीछे यही भाव है कि __ गया तो सच में मुश्किल में थे मुझसे दिल की बात कही। कहा | परमात्मा जो करवा रहा है, वह मैं कर रहा हूं। वह अगर आग में कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं; कुछ हालात ऐसे उलझ गए हैं कि डाल देता है, तो आग में जलने को तैयार हूं। मैं नहीं जल रहा हूं। कोई देखने तक नहीं आ रहा है। और लोग आते-जाते रहते, एक ईसून करके एक फकीर औरत हुई जापान में समर्पित कैमरामैन फोटो उतारता रहता, अखबार में फोटो छपती रहती, तो जीवन की एक प्रतिमा। भोजन भी करती, तो पहले आंख बंद करके झेल भी लेते। अब सिवाय भूख के और कुछ नजर नहीं आता आकाश की तरफ, थाली सामने रखी हो, तो भी आंख बंद करके चौबीस घंटे। किसी तरह उपवास तुड़वाने का इंतजाम करवा दें। आकाश की तरफ देख लेती। कभी कहती कि ले जाओ। नहीं, क्या रास्ता होगा? आज भोजन नहीं होगा। लोग कहते, क्या बात है? अभी तक तो कोई भी रास्ता निकाल लें। मेरी मांगें पूरी हों या न हों। मगर तुमने कुछ भी नहीं कहा था। पहले ही कह देना था। उसने कहा, अहंकार रास्ते खोजता है। फिर भी उन्होंने कहा कि इक्कीस दिन हो | जब तक भोजन सामने न आए, तब तक मैं प्रभु से पूछू भी कैसे! गए हैं मुझे। अब एकदम से तोड़ भी नहीं सकता। इज्जत का भी | मैं पूछी कि क्या करूं? क्या इरादे हैं? भोजन करूं, न करूं? आज सवाल है। तो प्रांत के चीफ मिनिस्टर आ जाएं, मोसंबी का एक | हां में उत्तर नहीं आता। भोजन ले जाओ। किसी दिन भोजन कर गिलास पिला दें और इतना ही कह दें कि हम आपकी मांगों पर | | लेती; कहती, हां में उत्तर आता है। मरने के एक दिन पहले आंख विचार करेंगे। बंद कर आकाश की तरफ...। मैंने कहा, यह हो सकता है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। । | पर लोगों को कभी भरोसा नहीं आया कि पता नहीं, ऊपर से कोई क्योंकि विचार करने में कोई झंझट नहीं है। विचार करेंगे। बस, | उत्तर आता है कि नहीं आता! यह अपने ही मन से उत्तर दे लेती है! उन्होंने कहा, इतना ही हो जाए तो काफी है। अब और मुझे कोई कभी खाना हो, तो खा लेती हो; कभी न खाना हो, तो न खाती हो। झंझट नहीं करनी है। मुझे उलझा दिया है शरारतियों ने और वे खुद लेकिन उस ईसून ने साठ वर्ष की उम्र तक कभी यह नहीं कहा भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं कि कहां हैं! | कि मैंने एक भी उपवास किया। क्योंकि वह अहंकार से तो उठता लोग आते रहते, भीड़-भड़क्का बना रहता, तो उनको कष्ट न | न था। मेरे का तो कोई सवाल न था। उसने कोई हिसाब भी न रखा; होता। भूख झेली जा सकती थी। अगर अहंकार भरता हो, तो बड़ी | | जैसा कि साधु रखते हैं कि उन्होंने इस बार इतने उपवास किए, उतने से बड़ी भूख झेली जा सकती है। लेकिन अगर अहंकार भी न भरता | | उपवास किए। इस चौमासे में फलाने ने इतने उपवास किए। इसका हो, तो फिर कठिनाई हो जाती है। कुछ हिसाब न था। ये कोई खाते-बही नहीं हैं कि इनके हिसाब रखे तपस्वियों को जरा आदर देना बंद कर दें, फिर आप देखेंगे, सौ | | जा सकें। लेकिन अहंकार खाते-बही रखता है। में से निन्यानबे विदा हो गए हैं। वे नहीं हैं अब कहीं। आदर मिले, | साठ साल! कभी कोई उससे कहता भी कि तूने कितने उपवास तो वे बढ़ते चले जाते हैं। किए! वह कहती कि मैंने? मैंने एक भी उपवास नहीं किया। हां, कृष्ण बहुत जानकर कहते हैं कि ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुई | | कभी-कभी प्रभु ने भोजन का आनंद दिया और कभी-कभी उपवास आत्मा। और ज्ञानरूपी तप से ही शुद्ध होती है। का आनंद दिया। ज्ञानरूपी तप कैसा होगा? क्योंकि अज्ञानरूपी तप में तो फिर साठ वर्ष उसके पूरे हुए। एक दिन उसने आकाश की अहंकार का शोषण है; अहंकार पर निर्भर है अज्ञानरूपी तप। तरफ-थाली सामने रखी थी-आकाश की तरफ देखकर कहा, ज्ञानरूपी तप किस बात पर निर्भर होगा? ज्ञानरूपी तप समर्पण पर | | भोजन ही नहीं; आज तो खबर आती है कि यह मेरा आखिरी दिन निर्भर होगा, अहंकार पर नहीं, सरेंडर पर। | है। सांझ सूरज के ढलने के साथ मैं विदा हो जाऊंगी। और ठीक
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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