SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिव्य जीवन, समर्पित जीवन सांझ सूरज के ढलने के साथ वह विदा हो गई। सांझ सूरज ढला, बात समाप्त हो गई। वह आंख बंद करके बैठी थी और श्वास उड़ गई। तब लोगों को । जब तक मेरी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब तक अज्ञानरूपी पता चला कि जो आवाज उसे आती थी, वह ऐसी ही नहीं थी, जैसा | है। और जब उसकी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब ज्ञानरूपी हो हम सोचते थे। क्योंकि भोजन के मामले में धोखा हो सकता है. जाती है। वह अनन्य शरण का ही दूसरा रूप है। मौत के मामले में तो धोखा नहीं हो सकता। और जब कोई समर्पित होकर तप से गुजरता है, तब आत्मा समर्पित तपश्चर्या ज्ञानरूपी तप है। परमात्मा के हाथों में जो पवित्र हो जाती है, तब भीतर सब शुद्ध हो जाता है। क्योंकि बड़ी जीए, वह जो ले आए-दुख तो दुख, सुख तो सुख, अंधेरा तो | से बड़ी अशुद्धि अहंकार है और बाकी सब अशुद्धियां अहंकार की अंधेरा, उजेला तो उजेला, भोजन तो भोजन, भूख तो भूख-वह ही बाई-प्रोडक्ट्स हैं। वे अहंकार से ही पैदा हुई हैं। जो ले आए, उसके लिए राजी होकर जो जीए, उसकी जिंदगी कभी आपने खयाल किया, अहंकार न हो, तो क्रोध पैदा हो ज्ञानरूपी तप है। उसका सारा जीवन एक तप है, लेकिन ज्ञानरूपी। सकता है? अहंकार न हो, तो क्रोध कैसे पैदा हो सकता है! कभी वह ईगोइस्ट, वह अहंकार की जिद नहीं है कि मैं कर रहा हूं ऐसा। | आपने खयाल किया है कि अहंकार न हो, तो लोभ पैदा हो सकता साक्रेटीज एक सांझ अपने घर के बाहर गया। रात देर तक लौटा है? अहंकार न हो, तो लोभ कैसे पैदा हो सकता है! कभी आपने नहीं; लौटा नहीं! घर के लोग परेशान। बहुत खोजा, मिला नहीं। खयाल किया कि अहंकार न हो, तो ईर्ष्या पैदा हो सकती है? फिर सुबह तक राह देखने के सिवाय कोई रास्ता न रहा। अहंकार न हो, तो ईर्ष्या कैसे पैदा हो सकती है! सुबह सूरज निकला, तब लोग खोजने गए। देखा कि बर्फ जम | । अहंकार मूल रोग है, मूल अशुद्धि है। बीमारी की जड़ है। बाकी गई है उसके घुटनों तक। रातभर गिरती बर्फ में खड़ा रहा। एक वृक्ष सारी बीमारियां उसी पर आए हुए पत्ते और शाखाएं हैं। इसलिए से टिका हुआ खड़ा है! आंखें बंद हैं। हिलाया। लोगों ने पूछा, यह समर्पण मूल साधना है। समर्पण का अर्थ है, अहंकार की जड़ काट क्या कर रहे हो? उसने आंख खोलीं; उसने कहा कि क्या हुआ? | | दो! अज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्ते काटती है-पत्ते, शाखाएं। नीचे देखा। जैसे दूसरे लोग चकित थे, वैसा ही चकित हुआ। कहा | लेकिन ध्यान रखें, जैसा नियम बगीचे का है, वैसा ही नियम मन कि अरे! बर्फ इतनी जम गई! रात गई? सूरज निकल आया? तो के बगीचे का भी है। आप पत्ता काटें; पत्ता समझता है कि कि कलम लोगों ने कहा कि तम कर क्या रहे हो? होश में हो कि बेहोश? तम हो रही है। एक पत्ते की जगह चार निकल आते हैं। आप शाख रातभर करते क्या रहे? काटें: शाखा समझती है. कलम की जा रही है। एक शाखा की उसने कहा, मैं कुछ भी न करता रहा। आज रात सांझ को जब | | जगह चार अंकुर निकल आते हैं। आप क्रोध काटें अहंकार को यहां आकर खड़ा हुआ, तारों से आकाश भरा था, दूर तक अनंत | | बिना काटे, और आप पाएंगे कि क्रोध चार दिशाओं में निकलना रहस्य; मेरा मन समर्पित होने का हो गया। मैंने आंख बंद करके | | शुरू हो गया। आप लोभ काटें बिना अहंकार को काटे, और आप अपने को छोड़ दिया इस विराट के साथ। फिर मुझे पता नहीं क्या | पाएंगे, लोभ ने पच्चीस नए मार्ग खोज लिए! हुआ। करवाया होगा उसने, मैंने कुछ किया नहीं है। अज्ञानरूपी तपश्चर्या शाखाओं से उलझती रहती है और मूल यह हुआ ज्ञानरूपी तप—समर्पित तपश्चर्या, सरेंडर्ड एटिटयूड।। | को पानी देती रहती है। अहंकार की जड़ को पानी डालती रहती है फिर जो हो जाए। फिर उसकी मर्जी। और अहंकार से पैदा हुई शाखाओं को काटती रहती है। शाखाएं जीसस सूली लटकाए जा रहे हैं। एक क्षण को उनके मुंह से ऐसा फैलती चली जाती हैं। अहंकार की जड़ मजबूत होती चली है। निकला कि हे परमात्मा! यह क्या दिखला रहा है? क्या तूने मुझे | ज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्तों से नहीं लड़ती, शाखाओं से नहीं छोड़ दिया? फिर एक क्षण बाद ही उन्होंने कहा, माफ कर। कैसी लड़ती, मूल जड़ को काट देती है। वह अनन्य भाव से अपने को बात मैंने कही! तेरी मर्जी पूरी हो। दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी | | समर्पित कर देती है। वह कह देती है, परमात्मा, तू ही सम्हाल। अब हो। फिर हाथ पर खीलियां ठोंक दी गईं; गर्दन सूली पर लटक गई| न क्रोध मेरा, न क्षमा मेरी। अब न सुख मेरा, न दुख मेरा। अब न लेकिन फिर जीसस, तेरी मर्जी पूरी हो, उसी भाव में हैं। जीसस की | | जीवन मेरा, न मृत्यु मेरी। अब तू ही सम्हाल। अब तू ही जो करे, यह सूली ज्ञानरूपी तपश्चर्या हो गई। समर्पित, तेरी मर्जी पूरी हो। कर। अब न मैं छोडूंगा, न पकडूंगा। अब न मैं भागूंगा; न मैं राग 45
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy