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________________ गीता दर्शन भाग-2 करूंगा, न विराग करूंगा। अब तू जो करवाए, मैं राजी हूं। इस राजीपन का नाम, इस एक्सेप्टेबिलिटी का नाम समर्पण है। इस समर्पण से सब शुद्ध हो जाता है, क्योंकि जड़ कट जाती है। जहां अहंकार नहीं, वहां अपवित्रता नहीं। और जहां अहंकार है, वहां अपवित्रता होगी ही। उसके रूप कुछ भी हो सकते हैं। और धार्मिक अपवित्रता अधार्मिक अपवित्रता से बदतर होती है। साधारण अहंकार से तपस्वी अहंकार ज्यादा खतरनाक होता है। साधारण आदमियों के क्रोध से दुर्वासा के क्रोध की हम क्या तुलना कर सकते हैं? दुर्वासा के क्रोध की बात ही और है; वह क्रोध चरम | ऐसा साधारण आदमी ऐसा क्रोध नहीं कर सकता। क्योंकि साधारण आदमी ने तपश्चर्या से अहंकार को इतना पानी भी नहीं दिया है कि इतना क्रोध कर सके। अज्ञानरूपी तपश्चर्या प्राणों को और अशुद्ध कर जाती है । ज्ञानरूपी तपश्चर्या शुद्ध कर जाती है। शेष, संध्या हम बात करेंगे। अभी आप रुकेंगे। एक पांच-सात मिनट एक समर्पित कीर्तन में सम्मिलित हों। 46
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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