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अनुक्रम गीता - दर्शन अध्याय 4
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सत्य एकजानने वाले अनेक... 1
सत्य है सनातन—समय के बाहर / समय के प्रारंभ में अर्थात समय के बाहर / सूर्य अर्थात प्रकाश / परमात्मा प्रकाश स्वरूप है / अहंशून्य व्यक्ति के भीतर से परमात्मा ही बोलता है / कृष्ण दो तलों पर बोल रहे हैं- कभी परमात्मा की तरह — और कभी अर्जुन के सारथी की तरह / मेरी शरण - अर्थात परमात्मा की शरण / सत्य एक है; बदल जाते हैं— बोलने वाले, सुनने वाले, भाषा / एक ही सत्य - विपरीत शब्दों में अभिव्यक्ति / कृष्ण मौलिक होने का दावा नहीं करते / मौलिक अर्थात मूलस्रोत से संबंधित / नए होने का दावा – अहंकार की घोषणा है / नए होने का बोध - स्वाभाविक भूल है / प्लेटो, हीगल, कांट का आग्रह — नए होने का / समस्त विवाद 'मैं' 'तू' के विवाद हैं / सत्य का कोई विवाद नहीं है / नया युग बहुत आग्रहपूर्ण है / हम नए होते हैं, पुराने होते हैं - सत्य में कोई अंतर नहीं पड़ता / हम बीतते हैं— समय नहीं बीतता / परंपरा अर्थात सातत्य, प्रवाह / ऋषि-परंपरा / जानने वालों ने कहा -सुनने वालों ने लिखा / परंपरा - शास्त्र की नहीं — जानने वालों की / जानने वाला - विनम्र / सत्य पूर्ण लुप्त कभी नहीं होता - करीब-करीब लुप्त होता है / सत्य लुप्तप्राय क्यों हो जाता है ? / अनुभव की परंपरा का शास्त्रों की परंपरा में खो जाना / शास्त्रों का रेगिस्तान - और सत्य की नदी / अनुभवी कहते हैं— गैर-अनुभवी सुनते हैं / कितना ही कहो - सत्य अनकहा रह जाता है / योग का क्या अर्थ है ? / सत्य है अनुभूति; यो अनुभूति की प्रक्रिया / राजर्षि का क्या अर्थ है ? / ऋषि होना असली बादशाहत है / मांग-मात्र भिखारीपन है / स्वामी रामतीर्थ की बादशाहत / सभी ऋषि राजा हैं / राजर्षि अर्थात जो बिना प्रयास के – अक्रिया से - ज्ञानी हो गया है / अक्रिया - न - करना द्वार है / राजयोग अर्थात विश्राम से पाना / राजर्षि अर्थात समर्पित - विश्राम को उपलब्ध हुआ व्यक्ति / आस्तिकता अर्थात समग्र स्वीकार ।
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण ...
विपरीत पर निर्भर होती हैं चीजें - दृश्य अदृश्य पर, पदार्थ परमात्मा पर, परिवर्तनशील अपरिवर्तनशील पर / वही सत्य, वही योग पुनः-पुनः कहा जाता है / असत्य को हम निर्मित करते हैं / सत्य नित्य है / इस नित्य सत्य को कृष्ण अर्जुन क्यों कहते हैं ? / प्रेम और मैत्री भाव हो, तो ही सत्य जाना जनाया जा सकता है / अजनबी के प्रति हम बंद और मित्र प्रति खुले होते हैं / हम करीब-करीब एक बेहोशी में जीते हैं / हमारा विस्मरण - हमारी नींद / कृष्ण का अर्जुन को 'प्रिय', 'सखा' आदि कहना – ताकि अर्जुन उनके प्रति खुल सके / आत्मीयता, प्रेम और मैत्री से चेतना के तल का ऊपर उठना /
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