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घृणा और शत्रुता से चेतना के तल का नीचे गिरना / अर्जुन जब कृष्ण के साथ ट्यूनिंग में है, तब कृष्ण द्वारा महावाक्य का उदघोष / जितना ज्यादा अधैर्य - उतनी ज्यादा देरी / कल्प के प्रारंभ में आप थे— यह मैं कैसे मानूं? / 'कैसे' का प्रश्न – अविश्वास और गैर-भरोसे में ले जाता है / प्रेम है भरोसा - निष्प्रश्न भरोसा / कृष्ण का शरीर तो नयी घटना है, लेकिन उनकी चेतना अनादि है / जो हम नहीं जानते - हम मानते हैं कि वह नहीं है / हमारी समस्त स्मृतियों का संग्रहालय - हमारा अचेतन / गर्भकालीन स्मृतियां और पिछले जन्मों की स्मृतियां भी संगृहीत / अर्जुन, जो तुझे पता नहीं, वह मुझे पता है / कृष्ण में जरा भी झिझक नहीं है / दार्शनिकों और ऋषियों के वचनों में फर्क / ऋषि कहते हैं: ऐसा है / अनुभव के अभाव में तर्क और दलीलों की जरूरत / सत्य एक अनुभव है - निष्कर्ष नहीं / उस समय सत्य बलयुक्त था; आज अज्ञान बल से भरा है / हमारी नपुंसक आस्था / अनुभव ही बेझिझक हो सकता है / मैं अजन्मा हूं / अपनी योग-माया से इस शरीर में उतरता हूं / आत्मा का संकल्प ही कृत्य बन जाता है / सम्मोहन में कल्पना का भी यथार्थ जैसा प्रभाव पड़ना / चेतना जो मान ले, वही हो जाती है / अवतार अर्थात जो सचेतन रूप से शरीर में उतरे / हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है / इच्छाओं का दुष्टचक्र / बुद्ध पुरुष करुणावश जन्म लेते हैं / जाग्रत मृत्यु – फिर जाग्रत जन्म - तो पिछले समस्त जन्मों की स्मृति उपलब्ध / पिछले जन्मों की स्मृतियों में वापस लौटने का प्रयोग / कृष्ण जैसे लोग करुणावश पैदा होते हैं / वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए / वासना संकोच है, करुणा विस्तार है / कृष्ण के 'मैं' में बुद्ध, महावीर, जीसस, मोहम्मद – सभी समा जाते हैं / कृष्ण का 'मैं' अर्थात परमात्मा - परम चेतना / धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए - साधुओं का उद्धार और असाधुओं के विनाश के लिए - परमात्मा का शरीर में अवतरण / दुष्टों का विनाश अर्थात उनकी दुष्टता का खो जाना / जिस युग में साधु पाखंडी होते हैं—उसी युग में दुष्ट लोग होते हैं / साधु हों - तो धर्म होता है / असाधु हों तो अधर्म होता है।
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन ...
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जन्म-मृत्यु, अंधकार-प्रकाश, लौकिक-अलौकिक आदि दो ध्रुवों के बीच बहती है जीवन की नदी / अलौकिक जीवन के अनुभव से जन्म-मृत्यु का अतिक्रमण / अलौकिक को इंद्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता / जीवन - दिव्य और अलौकिक है— कृष्ण इसके प्रतिनिधि हैं / जो हमारे भीतर प्रगट हो सकता है, वह कृष्ण में प्रगट हो गया है / कृष्ण हमारी संभावनाओं की आहट हैं / जीसस और मंसूर को हमने मार डाला, क्योंकि हम उनकी भाषा न समझ सके – कृष्ण की हम पूजा करने लगे / सूली और पूजा - दोनों ही उनसे बचने के उपाय हैं / कृष्ण के 'मैं' में सब 'तू' समाए हुए हैं / वीतरागता न राग है, न विराग - दोनों का अतिक्रमण है / याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद / राग-विराग-द्वंद्व / यह विश्व परमात्मा का शरीर है / मनुष्य का शरीर पूरे ब्रह्मांड से जुड़ा है / अलग होना भ्रांति है / अनन्य भाव से शरणागत हुए, और ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए- इसका क्या अर्थ है ? / दूसरापन न बचे / अहंकार से निकली तपश्चर्या अपवित्र / ज्ञानरूपी तप अर्थात परमात्मा जो करवाए / समर्पित जीवन / मूल रोग - अहंकार / समर्पण है मूल - साधना ।
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परमात्मा के स्वर
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परमात्मा हमें प्रतिध्वनि देता है / परमात्मा की आवाज – बड़ी धीमी, बड़ी नाजुक / जैसे को तैसा / जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि / उन्हीं तरंगों का वापस लौटना / प्रार्थनापूर्ण हृदय / पुकार खाली नहीं जाती / परम शक्ति और मिटने का साहस / देवताओं की अर्चना का शुभ फल / शुभ की शक्तियों का सहारा / प्रेतात्म-विज्ञान / तीर्थ - भली आत्माओं का संघट-स्थल / योगोनष्टः का अर्थ 'योग का लुप्तप्राय हो जाना' क्यों किया गया है ? / विनाश