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________________ गीता दर्शन भाग-20 कह सकते हैं किसी से कि हमारे घर भी चोरों का ध्यान है! तू जा। | | रहा सदा। और जब तक मेरे सिर में दर्द रहा, मैं नास्तिक थी। मुझे मजे से जा। हम बड़े खुश हैं! ईश्वर पर भरोसा न आया। पर यह कभी खयाल न आया कि चोर चला गया। फकीर अपनी खिड़की पर बैठा हुआ उसे देखता | सिरदर्द भी मेरी नास्तिकता का कारण हो सकता है। यह तो जब मेरा रहा। ऊपर आकाश में चांद निकला है पूर्णिमा का। आधी रात। | | सिरदर्द ठीक हो गया और मैं स्वस्थ हुई, तब धीरे-धीरे मैंने पाया चारों तरफ चांदनी बरस रही है। उस रात उस फकीर ने एक गीत | | कि मेरी नास्तिकता चली गई और मैं आस्तिक हो गई! तब मुझे लिखा और उस गीत की पंक्तियां बड़ी अदभुत हैं। उस गीत में उसने खयाल में आया कि वह सिरदर्द ही मेरी नास्तिकता का कारण था। लिखा कि चांद बहुत प्यारा है! बेचारा गरीब चोर! अगर मैं यह चांद भीतर सिर में दर्द बना रहे चौबीस घंटे, तो बाहर परमात्मा दिखाई भी उसे भेंट कर सकता! लेकिन अपनी सामर्थ्य के बाहर है। यह पड़ना मुश्किल हो जाता है। जब भीतर पीड़ा हो, तो बाहर पीड़ा चांद भी काश, मैं उस चोर को भेंट कर सकता! बेचारा गरीब चोर! | दिखाई पड़ने लगती है। जब भीतर असंतोष हो, तो बाहर असंतोष लेकिन अपनी सामर्थ्य के बाहर है। दिखाई पड़ने लगता है। फिर वह चोर पकड़ा गया—कभी, कुछ महीनों बाद। अदालत भीतर जो है, वही बाहर प्रतिफलित होकर फैल जाता है। संसार ने इस फकीर को भी पूछा बुलाकर कि इसने चोरी की? फकीर ने हमारा ही बड़ा फैलाव है; हम ही जैसे बड़े मैग्नीफाइंग ग्लास से कहा कि नहीं। क्योंकि जब मैंने इसे दस रुपए भेंट किए, तो इसने | देखे गए हों। जैसे हमको ही बहुत बड़ा करके देखा गया हो। संसार धन्यवाद दिया। और जब मैंने इसे कंबल दिया, तो इसने मुझे बहुत | - हमारा ही बड़ा फैलाव है। मनाया कि आप ही रखिए; रात बहुत सर्द है। यह आदमी बहुत | जब तक भीतर द्वंद्व है, डुएलिटी है, तब तक संसार में भी द्वंद्व भला है। वह तो मैंने ही इसे मजबूर किया, तब बामुश्किल, बड़े है। तब तक पदार्थ भी अलग दिखाई पड़ेगा, आत्मा भी अलग संकोच में यह कंबल ले गया था। दिखाई पड़ेगी। तब तक सब चीजों में द्वंद्व दिखाई पड़ेगा। तब तक फिर उसको दो साल की सजा हो गई। कुछ और चोरियां भी थीं। । | ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ सकता। क्योंकि ब्रह्म अद्वंद्व, अद्वैत, दुई-मुक्त फिर सजा के बाद छुटा, तो सीधा भागा हआ उस फकीर के चरणों अनुभव है। में आया। उसके चरणों में गिर पड़ा कि तुम पहले आदमी हो, भीतर द्वंद्व मिट जाए...। इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, जिसने मुझसे आदमी की तरह व्यवहार किया। अब मैं तुम्हारे चरणों द्वंद्वातीत होता जो पुरुष, और अब इस सूत्र में कहते हैं, सब कुछ में हूं। अब तुम मुझे आदमी बनाओ। तुमने व्यवहार मुझसे पहले | ब्रह्म हो जाता है। और जब सब ब्रह्म हो जाता है, तो जीवन की जो कर दिया आदमी जैसा, अब मुझे आदमी बनाओ भी। उस फकीर | | परम निधि है, वह उपलब्ध हो जाती है। ने कहा, और मैं कर भी क्या सकता था? एक अंतिम श्लोक और। जो हमारे भीतर होता है, वही दिखाई पड़ता है। अगर फकीर के भीतर जरा भी चोर होता, तो वह पुलिस वाले को चिल्लाता। पास-पड़ोस में चिल्लाहट मचा देता कि चोर घुस प्रश्नः भगवान श्री, पिछले श्लोक के काव्य, 'ब्रह्मरूपी गया। लेकिन फकीर के भीतर अब कोई चोर नहीं है। तो मकान में कर्म में समाधिस्थ व्यक्ति' का क्या अर्थ है। चोर भी आ जाए, तो भी चोर नहीं मालूम पड़ता, दुश्मन नहीं मालूम पड़ता; मित्र ही मालूम पड़ता है। हमारे भीतर जो है, वही हमें बाहर दिखाई पड़ने लगता है। भीतर | ग ह आखिरी बात ले लें, श्लोक कल सुबह लेंगे। अगर द्वंद्व है, तो बाहर भी द्वंद्व दिखाई पड़ने लगता है। 4 ब्रह्मरूपी कर्म में समाधिस्थ व्यक्ति! .. सिमन वेल ने—पश्चिम की एक बहुत विचारशील महिला, जब सब ओर ब्रह्म ही रह जाता है, कर्ता भी ब्रह्म हो अभी-अभी कुछ वर्षों पहले मरी; कम उम्र में मर गई। पर उस छोटी | जाता है फिर, फिर कर्म भी ब्रह्म हो जाता है। जब सब ओर ब्रह्म ही - उम्र में भी उसने बहुत कीमत की बातें लिखीं। उनमें उसने एक | है, तो मैं श्वास लेता हूं, तो भी ब्रह्म ही भीतर जाता है; श्वास कीमती बात लिखी कि मेरी तीस साल की उम्र तक मेरे सिर में दर्द | छोड़ता हूं, तो ब्रह्म ही बाहर जाता है। जन्मता हूं, तो ब्रह्म ही 124
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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