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________________ मैं मिटा, तो ब्रह्म जन्मता; विदा होता हूं जीवन से, तो ब्रह्म ही विदा होता। लहर का उठना भी वही, लहर का गिरना भी वही । जागता हूं, तो ब्रह्म जागता है; सोता हूं, तो ब्रह्म सोता है। खाता हूं, तो ब्रह्म खाता, और ब्रह्म कोही । भजता हूं, तो ब्रह्म भजता, और ब्रह्म को ही । जब ब्रह्म ही सब कुछ है, एक ही अस्तित्व सब कुछ है, तो सभी कर्म ब्रह्म की ही तरंगें हो जाते हैं। ब्रह्मरूपी कर्म में समाधिस्थ ! फिर ऐसे व्यक्ति को, जो इतने कर्म में भी लगा रहे, फिर भी भीतर समाधिस्थ रहता है; क्योंकि कर्म अब ब्रह्मरूपी हुए। अब वह श्वास भी लेता है, तो उसी की । भोजन भी करता है तो उसी का। उठता, तो वही । बैठता, तो वही। अब जब सभी ब्रह्मरूपी हो जाता, तो समाधि नहीं तो और क्या होगा? बीच में समाधि खड़ी हो जाती है। जब सभी ब्रह्म है, तो चिंता तो मिट जाती। जब सभी ब्रह्म है, तो असुरक्षा तो मिट जाती। जब सभी ब्रह्म है, तो भय तो मिट जाता। जब सभी ब्रह्म, है, तो सारा तनाव जाता। तब सारे काम होते, जैसे हवाएं बहतीं – ऐसे; जैसे पानी बहता – ऐसे; जैसे आकाश में बादल चलते - ऐसे | जैसे वृक्षों में फूल खिलते-ऐसे, सब कर्म सहज होते हैं। करने नहीं पड़ते; ब्रह्म ही कराता है। और इसके बीच में, वह जो पुरुष ऐसे अनुभव में होता है, समाधिस्थ हो जाता है। समाधिस्थ का अर्थ ? समाधि शब्द बड़ा कीमती है। बना है वह उसी से, जिससे बनता है समाधान । ऐसा पुरुष समाधिस्थ हो जाता है अर्थात समाधान को उपलब्ध हो जाता है। उसके जीवन में कोई समस्या नहीं रह जाती, कोई प्राब्लम नहीं रह जाता। उसके जीवन में कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उसके जीवन में कोई उलझन नहीं रह जाती। सुलझ जाता है। समाधिस्थ हो जाता है अर्थात समाधान को उपलब्ध हो जाता है, सुलझ जाता है। उसके जीवन में कुछ भी पूछने योग्य, खोजने योग्य, जानने योग्य, पाने योग्य, कोई भी प्रश्न नहीं रह जाता है। निष्प्रश्न हो जाता है। ब्रह्म को सब ओर जो अनुभव करता है, वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है । और ब्रह्म जैसी गहरी समाधि में है, ऐसी ही गहरी समाधि में वह भी खो जाता है। कभी छोटे-छोटे प्रयोग करें, तो खयाल में आ जाए। कभी जमीन पर लेट जाएं किसी बगीचे के एकांत में जाकर । आंखें न झपकें। पलकें खुली रखें, अपलक। आकाश को देखते रहें एकटक । बिना आंख झपके, सिर्फ विराट आकाश को देखते रहें थोड़ी देर । और आप एक अदभुत अनुभव से गुजरेंगे। जब बिना आंखें झपके आकाश को देखते रहेंगे, देखते रहेंगे, थोड़ी देर में आप पाएंगे, आपके भीतर भी आकाश है; बाहर भी आकाश है। और थोड़े | गहरे देखते रहेंगे, तो पाएंगे कि भीतर और बाहर एक ही, आकाश ही आकाश है। और तब परम विश्राम और परम समाधानका अनुभव होगा। यह छोटा-सा मैं कह रहा हूं। आकाश उतना बड़ा नहीं है, जितना ब्रह्म । जब कोई व्यक्ति अपने बाहर सब तरफ ब्रह्म को ही देखता है; जैसे आपने थोड़ी देर आकाश को देखा, ऐसा जब कोई प्रतिपल चारों ओर ब्रह्म को ही देखता है, तो बाहर भी ब्रह्म और भीतर भी ब्रह्म; और दोनों के बीच बड़ा सुर-संगीत निर्मित हो जाता है। दोनों के बीच बड़ा तालमेल है, दोनों के बीच बड़ी ट्यूनिंग है। आर.डब्लू.टाइन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उसका नाम है, इन ट्यून विद दि इनफिनिट- - अनंत के साथ एकरस, एकतान बद्ध । कभी आकाश के साथ प्रयोग करें; छोटा प्रयोग है। परमात्मा, ब्रह्म बड़ा आकाश है, विराट आकाश है। लेकिन एक बड़ा विराट | आकाश - हमारे अनुभव के लिए तो बहुत विराट - हमारे ऊपर छाया हुआ है, छत की भांति । कभी उसके नीचे लेट जाएं सीधे । सब भूल जाएं। आकाश को देखते रहें। आंख बंद न करें, अपलक देखते रहें। आंसू बहें, बहने दें। आकाश को देखते रहें। थोड़ी ही देर में पाएंगे, भीतर भी आकाश समा गया। और जब दोनों तरफ आकाश होंगे, तो दोनों आकाश की वार्ता शुरू हो जाएगी, डायलाग शुरू हो जाएगा। इन ट्यून विद दि इनफिनिट और तब एक सुर संगम बजने | लगेगा। दोनों के बीच एक संगीत का आदान-प्रदान शुरू हो | जाएगा। और एक समाधान की झलक मिलेगी। वह झलक बड़ी छोटी है— तिनके जैसी है, एक बूंद जैसी है। कृष्ण जिस झलक की बात कह रहे हैं, वह विराट सागर जैसी है। लेकिन इससे भी रस का पता चलेगा कि जब किसी व्यक्ति को सारा जगत ब्रह्म हो जाता है, तो उसके भीतर भी ब्रह्म पूरा का पूरा खड़ा हो जाता है । फिर इन दोनों, बाहर और भीतर के बीच, सुर-तान एक हो जाती है। फिर दोनों मिट जाते हैं। बाहर-भीतर का बोध मिट जाता है। फिर एक ही रह जाता है। उस एक के अनुभव का नाम समाधि है। 125
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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