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गीता दर्शन भाग-28
सारे तर्क बेमानी हैं। सब तर्क विपरीत को, विरोध को और | डोलती रहती है। उसके सीधे, निष्कंप होते ही सच्चिदानंद परमात्मा मजबूत कर जाते हैं। सोचते हैं, उस डाक्टर की क्या हालत हुई | | के साथ तालमेल, हार्मनी, संगीत निर्मित हो जाता है। होगी! तीन घंटे की मेहनत एक वाक्य में उसने समाप्त कर दी!
दुनिया में कोई विवाद से कभी बात तय नहीं होती। क्यों नहीं | होती तय? कोई सत्य की खोज में नहीं है, पक्ष की खोज में है। और । बाह्यस्पशेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । जब पक्ष को कोई निर्मित करता है, तो वह सदा डरा रहता है, उसके | सब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते । । २१।।। भीतर विपरीत भी मौजूद रहता है। वह आपसे अपना बचाव कम | और बाहर के विषयों में आसक्तिरहित पुरुष अंतःकरण में करता है; अपने ही भीतर के एक्सप्लोजन, विस्फोट से बचाव जो भगवत्ध्यान जनित आनंद है, उसको प्राप्त होता है और करता है। तो वह इंतजाम मजबूत करता चला जाता है। आप दस वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में तरकीबें लाते हैं, दस दलीलें लाते हैं कि ईश्वर है। वह भी दस एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है। दलीलें लाता है कि नहीं है। आप दस दलीलें लाते हैं कि ईश्वर नहीं है, आस्तिक दस दलीलें लाता है कि है। इसीलिए तो पांच-दस हजार साल से दुनिया में विवाद चलता है। किसी का संशय मिटता ला ह्य विषयों में अनासक्त हुआ! वही बात एक दूसरे है विश्वास से, अविश्वास से? हिंदू से, मुसलमान से? ईसाई से? पा आयाम से पुनः कृष्ण कहते हैं। किसी का कोई संशय नहीं मिटता।।
कृष्ण जैसे व्यक्तियों की भी कठिनाइयां हैं। जो बात ___ कृष्ण का अर्थ बहुत दूसरा है। वे कहते हैं कि अगर संशय | एक बार कही जा सकती है, वह भी हजार बार कहनी पड़ती है। मिटाना है, तो तुम पक्ष-विपक्ष में मत पड़ो। तुम मौन, दोनों से दूर | फिर भी जरूरी नहीं है कि सुनने वाले ने सुनी हो। हजार बार कहकर खड़े हो जाओ। तुम कहो कि मुझे पता नहीं कि यह ठीक है या वह | | भी डर यही है कि नहीं सुनी जाएगी। ठीक है। मैं निष्पक्ष खड़ा हो जाता हूं।
बहुत-बहुत मार्गों से वे वही-वही, फिर-फिर अर्जुन से कहते हैं। निष्पक्ष खड़े होना ठीक है। दो के बीच एक को चुनना ठीक नहीं, | शायद एक आयाम से समझ में न आई हो, दूसरे आयाम से समझ तीसरे बिंदु पर निष्पक्ष खड़े हो जाना ठीक है, निःसंशय। तब फिर | में आ जाए। शायद हृदय के द्वार से खयाल में न आई हो, बुद्धि के कोई संशय नहीं होगा।
द्वार से खयाल में आ जाए। शायद हृदय और बुद्धि दोनों की बात संशय तभी होता है, जब कोई विश्वास होता है। यह भी बात | | गहरी पड़ गई हो, तो वस्तुओं के मार्ग से समझ में आ जाए। खयाल में ले लें। जिसने भी विश्वास को पकड़ा, उसको संदेह भी आब्जेक्टिव वर्ल्ड है हमारे चारों तरफ; वस्तुओं का जगत है। पकड़ेगा। अगर आपने पकड़ा कि ईश्वर है, तो पच्चीस तरह के | दो वस्तुओं के बीच जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच, जहां इंद्रियां संदेह उठेंगे, कैसा है ? क्यों है? कब से हुआ? अगर आपने कहा, | आकर्षित होकर टिकती हैं, आसक्ति के गेह बनाती हैं, घर बनाती नहीं है, तो पच्चीस तरह के संदेह पकड़ेंगे कि फिर यह जगत कैसे | हैं, वहां जो अनासक्त-भाव से जीता है, वह भी, वह भी वहीं पहुंच है? यह जीवन क्यों चल रहा है? आदमी क्यों मरता-जीता है? | | जाता है, सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म में। सुखी-दुखी क्यों होता है ? पकड़ते चले जाएंगे। लेकिन अगर आप | | किसी भी द्वार से तटस्थ हो जाना सूत्र है। किसी भी व्यवस्था से कोई विश्वास, कोई अविश्वास न पकड़ें, तो आपको संशय पकड़ | च्वाइसलेस, चुनावरहित हो जाना मार्ग है। किसी भी ढंग, किसी सकता है ? संशय की कोई जगह न रही। संशय को टिकने के लिए | | भी विधि, किसी भी मार्ग से दो के बीच अकंप हो जाना सूत्र विश्वास या अविश्वास की खूटी चाहिए। दोनों न पकड़ें। कृष्ण | है-स्वर्ण सूत्र। कहते हैं, संशयरहित हो जाएंगे, निःसंशय हो जाएंगे।
वस्तुएं भी निरंतर बुला रही हैं। मन आसक्त कब होता है? प्रीतिकर-अप्रीतिकर से हृदय के द्वार पर तटस्थ हो जाएं; वस्तुओं को देखने से नहीं होता मन आसक्त। रास्ते से गुजरते हैं विश्वास-अविश्वास से बुद्धि के द्वार पर तटस्थ हो जाएं। ये दो आप, दुकान पर दिखाई पड़ा है कुछ; शो रूम में, शो केस में कुछ तरह की तटस्थताएं भीतर उस ज्योति को सीधा कर देंगी, जो | | दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ने से मन आसक्त नहीं होता। आंख
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