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________________ चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा ब्रह्म का मुख कौन है? खुद ब्रह्म का मुख तो हो नहीं सकता। | हैं। लेकिन पृथ्वी पर मनुष्य-जाति का कोई कोना ऐसा नहीं, जहां ब्रह्म को सदा ही किसी और के मुख का उपयोग करना पड़ता है। | ब्रह्म ने किसी मुख का उपयोग न किया हो। अनंत मुखों से उसकी जिनके मुखों का ब्रह्म उपयोग करता है, वे वे ही लोग हैं, जो अपने | | धारा बही है। को पूरी तरह ब्रह्म को समर्पित करते हैं, उपकरण बन जाते हैं, वेद का अर्थ है, जो भी जानने वाले लोगों के द्वारा कहा गया मीडियम। बांसुरी की तरह रख जाते हैं ब्रह्म के निराकार पर और | | है-कहीं भी और कभी भी, किसी काल में और किसी समय में। निराकार उनकी बांसुरी से गूंजकर आकार की दुनिया में बसे हुए लेकिन सांप्रदायिक मन ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होता है। लोगों तक स्वर बनकर पहुंच जाता है। गीता प्रेस, गोरखपुर के लोग ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होंगे। जो व्यक्ति भी अपने को समग्ररूपेण प्रभु को समर्पित कर देता, | वे कहेंगे, वेद तो हमारा है। उतने में सीमा है। हमारा भी इतना नहीं वह ब्रह्म का मुख बन जाता है। | कि महावीर को भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि बुद्ध को जैनों के तीर्थंकर ब्रह्म के मुख हैं। बुद्ध ब्रह्म के मुख हैं। जीसस, भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि वह सतत प्रवाहमान और मोहम्मद ब्रह्म के मुख हैं। लाओत्से, जरथुस्त्र ब्रह्म के मुख हैं। | ग्रोइंग हो-कि जो भी आए, उसे समा सके। सभी जातियों को मोजिज, इजेकिएल ब्रह्म के मुख हैं। सारी पृथ्वी पर अनंत-अनंत | ऐसी भ्रांति पैदा होती है। मुखों से ब्रह्म ने कहे हैं बहुत-बहुत मार्ग। लेकिन शब्द देखने जैसे हैं। जैसे कि बाइबिल के लिए शब्द जो अगर वेद का अर्थ ऐसा हो कि इस हमारे मुल्क में पैदा हुआ जो है, बाइबिल। बाइबिल का मतलब होता है, दि बुक; सिर्फ किताब। शास्त्र वेद कहा जाता, उससे ही निकला हुआ जो है, वह ब्रह्म का कोई नाम नहीं है। जिन्होंने जाना, उनका संग्रह कर दिया। सिक्खों कहा हुआ है। तो फिर जीसस के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का की किताब का नाम है, गुरुग्रंथ। जिन्होंने जाना, जो इस योग्य हुए कहा हुआ नहीं होगा। फिर महावीर के मुख से निकला हुआ ब्रह्म | | कि दूसरों को जना सकें, उनके शब्द इकट्ठे कर दिए; नाम दिया, का कहा हुआ नहीं है। फिर लाओत्से के मुख से निकला हुआ ब्रह्म गुरुग्रंथ। वेद, जिन्होंने जाना, उनकी वाणी संगृहीत कर दी; नाम का कहा हुआ नहीं है। दिया, वेद। ये सारी किताबें साधारण किताबें नहीं हैं। इनकी कोई वेद में जो कहा है, वह तो ब्रह्म के मुख से निकला ही है; लेकिन सीमा का, इनका कोई संप्रदाय का आग्रह खतरनाक है, मनुष्य को वेद का अर्थ अगर हम चार संहिताएं करें, तो हम ब्रह्म को बहुत | तोड़ने वाला है। सीमित करते हैं, अन्याय करते हैं। तो कृष्ण जब कहते हैं, ब्रह्म के मुख से, तो उनका प्रयोजन साफ वेद का ठीक-ठीक अर्थ करें, तो वेद का अर्थ होता है, नालेज, | | है। वे भी कह सकते थे, वेद के मुख से। वह उन्होंने नहीं कहा। ज्ञान। वेद उसी शब्द से निर्मित होता है, जिससे विद्वान, विद्वता। नहीं कहा है, स्पष्ट जानकर ही। कहते हैं, ब्रह्म के मुख से। प्रयोजन वेद का अर्थ होता है, ज्ञान। विद का अर्थ होता है, टु नो, जानना। यह है कि कहीं भी ब्रह्म का मुख खुल सकता है। जहां भी किसी अगर ठीक-ठीक जो कि मौलिक अर्थ है, वेद का जो ठीक-ठीक व्यक्ति का अपना मुख बंद हो जाएगा, वहीं ब्रह्म का मुख खुल अर्थ है, वह है, जानना। जहां भी जानने की घटना घटी है, वहीं वेद | सकता है। जहां भी कोई व्यक्ति अपनी तरफ से बोलना बंद कर की संहिता निर्मित हो गई है। देगा, वहीं से प्रभु उससे बोलने लगता है। जहां भी कोई व्यक्ति अगर कोई मुझसे पूछे, तो मैं कहूंगा, बाइबिल वेद की एक | अपने को पूरा सरेंडर कर देता है, वहीं से... । इसलिए वेद को हम संहिता है, कुरान वेद की एक संहिता है। पृथ्वी पर जहां-जहां ज्ञान | कहते हैं, अपौरुषेय; मनुष्य के द्वारा निर्मित नहीं। उदघोषित हुआ है, ब्रह्म ने ही कहा है। किसी के मुख को माध्यम लेकिन सांप्रदायिक मन अजीब-अजीब अर्थ निकालता है। बनाया है। मुख अलग-अलग हैं, भाषाएं अलग-अलग हैं। मुख | अज्ञान अर्थ निकालने में बहुत कुशल है; अज्ञान व्याख्या करने में अलग-अलग हैं, परंपराएं अलग-अलग हैं। मुख अलग-अलग भी बहुत कुशल है। अज्ञान अर्थ निकाल लेता है; वेद अपौरुषेय हैं, प्रतीक अलग-अलग हैं। लेकिन जो जानता है, वह सब | | हैं, तो निकाल लेता है अर्थ कि वेद परमात्मा के द्वारा रचित हैं। फिर भाषाओं, सब प्रतीकों के पार, उस एक वाणी को पहचानता है। । इतने से भी कोई खतरा नहीं है। फिर यह भी अर्थ संगृहीत होता वेद की अनंत संहिताएं हैं। जो चार हमारे पास हैं, वे हमारे पास चला जाता है कि सिर्फ वेद ही परमात्मा के द्वारा रचित हैं; फिर कोई 203]
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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