SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐगीता दर्शन भाग-26 जाता है, तीसरा नीचे जाता है। एक कहता है, मत करो; एक कहता मकान का। उसने कहा, आई एम दि मास्टर; सोए रहो, कोई जल्दी है, करो। तीसरा हिस्सा सोया रहता है; इस फिक्र में ही नहीं पड़ता | नहीं है। सुबह आठ बजे तीसरा नौकर सामने था, उसने कहा, बड़ा कि करना है, कि नहीं करना है। ऐसे हजार हिस्से हैं हमारे भीतर। बुरा काम किया, यह ठीक नहीं है, तय करना और बदल जाना। फिर गुरजिएफ कहा करता था, हम एक ऐसे मकान हैं, जिसका | | तय करो। मगर भीतर जो असली मालिक है, वह सोया हुआ है। मालिक सोया हुआ है और जिसमें हजार नौकर हैं। और हर नौकर | नौकर-इंद्रियां, वृत्तियां, वासनाएं मालिक हो जाती हैं। जो जब अपने को मालिक समझने लगा है, क्योंकि मालिक सोया ही रहता | मौका पा जाता है, हमारी छाती पर बैठ जाता है। जब लोभ हमारे है। तो कभी-कभी ऐसा होता है कि दरवाजे से कोई निकलता है, | ऊपर बैठता है, तो ऐसा लगता है, लोभ ही हमारी आत्मा है। जब दरवाजे पर जो नौकर मिल जाता है, कोई भी पूछता है, यह महल | क्रोध हम पर सवार होता है, तो ऐसा लगता है कि क्रोध ही मैं हूं। किसका है? बड़ा है महल। निश्चित ही, जिसमें हजार नौकर हों, | जब प्रेम हम पर सवार होता है, तो लगता है, बस प्रेम ही सब कुछ तो महल बड़ा होगा। है। जो हमें पकड़ लेता है भूत-प्रेत की भांति, जो वृत्ति हम पर हावी दरवाजे पर जो नौकर मिल जाता है पूछने वाले को, वह कहता | हो जाती है, बस हम उसके हाथ के खिलौने हो जाते हैं। असली है, मैं हूं। आई दि मास्टर, मैं हूं मालिक। यात्री कभी फिर लौटता | मालिक का कोई भी पता नहीं है। है, तो कोई दूसरा नौकर बाहर मिल जाता है। वह उससे पूछता है, | योग का अर्थ है, असली मालिक का जग आना; नौकरों के बीच यह मकान किसका है? वह कहता है, आई एम दि मास्टर, मैं हूं | मालिक को सिंहासन-आरूढ़ करना। योग का अर्थ है-शब्द का मालिक। सारे लोग चकित हैं कि मालिक कौन है? क्योंकि कभी | भी-इंटीग्रेशन। योग शब्द का अर्थ है, इंटीग्रेशन; योग-शब्द का कोई मालिक मालूम पड़ता है, कभी कोई मालिक मालूम पड़ता है! | अर्थ है, जोड़। व्यक्ति जुड़ा हुआ हो; खंड-खंड नहीं, अखंड; एक असली मालिक सोया हुआ है। | हो। और जब कभी व्यक्ति एक होता है, तो सब नौकर तत्काल सिर गुरजिएफ कहता था, आम आदमी की हालत इस मकान की | झुकाकर मालिक के सामने खड़े हो जाते हैं। फिर कोई नौकर नहीं तरह है। असली मालिक सोया हुआ है। और इंद्रियों में जो ऊपर कहता कि मैं मालिक हूं। होता है, वृत्तियों में जो ऊपर होता है, वासना में जो ऊपर होता है, | योगस्थ चेतना तत्काल समस्त इंद्रियों की मालिक हो जाती है। वह कहता है, आई एम दि मास्टर। | फिर इंद्रियां नौकर की तरह पीछे चलती हैं। छाया की तरह। ___ जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपको पता है, क्रोध कहता है, | मालकियत उनकी खो जाती है। मैं हूं मालिक। जब आप प्रेम में होते हैं, तो प्रेम कहता है, मैं हूं तो कृष्ण इस चौथे चरण में कहते हैं कि योग यज्ञ भी है अर्जुन! मालिक। सुबह किसी के प्रति प्रेम से भरे थे, तो कहा कि जान लगा | यह चेतना कैसे जगे! यह सोया हुआ मालिक कैसे उठे! यह दूंगा तेरे लिए। और सांझ उसी की जान ले ली! क्योंकि सुबह प्रेम आदमी क्रिस्टलाइज्ड कैसे हो, एक कैसे हो, इकट्ठा कैसे हो! मालिक था, सांझ घृणा मालिक हो गई! नौकर इधर-उधर हो गए। | तो योग की हजारों प्रक्रियाएं हैं, जिनके द्वारा सोए हुए मालिक सांझ को तय करता है आदमी, सुबह चार बजे उठ आऊंगा। | को उठाया जाता है। मैं एक छोटा-सा गुरजिएफ का उदाहरण दूं, सुबह चार बजे वही आदमी करवट बदलकर कहता है, आज रहने | | ताकि खयाल आ सके। दो; फिर देखेंगे। सुबह आठ बजे उठकर फिर पछताता है वही गुरजिएफ तिफलिस के गांव के पास ठहरा हुआ है कुछ मित्रों आदमी, कि मैंने तो कसम खाई थी, उठा क्यों नहीं? अब पक्का | को लेकर। और उसने उनको कहा है कि मैं तुमसे एक प्रयोग करवा उलूंगा। कल तो कसम है। फिर कल चार बजते हैं। वही आदमी | रहा हूं, स्टाप एक्सरसाइज। मैं जब कहूं, स्टाप, रुको, तो तुम रुक दुलाई के भीतर करवट लेता है। कहता है, रहने भी दो; ऐसी क्या | जाना जैसे भी होओ। अगर तुमने एक पैर ऊपर उठाया है चलने के जल्दी है। फिर उठ जाएंगे; कल उठ आएंगे। सुबह आठ बजे वही | लिए, तो वह पैर फिर वहीं रह जाए। फिर बेईमानी मत करना; आदमी फिर पछताता है। बात क्या है? क्योंकि बेईमानी तुम्हारे अपने साथ होगी। नीचे मत रखना, वहीं जिस आदमी ने सांझ तय किया कि सुबह चार बजे उठेंगे, वह | रुक जाना। गिर जाओ भला, लेकिन सचेतन, अपनी तरफ से पैर दूसरा हिस्सा था मन का। सुबह चार बजे दूसरा हिस्सा सामने था| वहीं रखना। गिर जाओ, दूसरी बात। लेकिन तुम पैर नीचे मत 178
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy