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गीता दर्शन भाग-2
भीतर एनर्जी नहीं है। पड़े हैं अपने बिस्तर से टिके हुए। ऊर्जा नहीं र पुनः कृष्ण कहते हैं! शायद फिर अर्जुन की आंख में है. शक्ति नहीं है। इरादे तो बहत हैं कि जीत लें दनिया को। इरादे
झलक लगी होगी कि जब दोनों ही मार्ग ठीक हैं. और कर रहे हैं आंख बंद करके वहीं दुनिया को जीतने के। आलस्य में | जब कर्म को छोड़ने वाला भी वहीं पहुंच जाता है, जहां पड़े हुए लोग भी सिकंदर से कम यात्राएं नहीं करते। लेकिन भीतर कर्म को करने वाला। तो अर्जुन के मन को लगा होगा, फिर कर्म ही भीतर करते हैं, बाहर नहीं। आलस्य और विश्राम में भेद है। | को छोड़ ही दूं। छोड़ना चाहता है। छोड़ना चाहता था, इसीलिए तो
कर्म-संन्यास विश्राम की अवस्था है, आलस्य की नहीं। | यह सारा संवाद संभव हो सका है। सोचा होगा, कृष्ण अब कर्मयोग और कर्म-संन्यास दोनों के लिए शक्ति की जरूरत है। | बिलकुल मेरे अनुकूल आए चले जाते हैं। अब तो वही कहते हैं मेरे दोनों के लिए। आलसी दोनों नहीं हो सकता। आलसी कर्मयोगी तो मन की, मनचाही, मनचीती बात। यही तो मैं चाहता है कि छोड़ दं हो ही नहीं सकता, क्योंकि कर्म करने की ऊर्जा नहीं है। आलसी | सब। और जब छोड़ने से भी पहुंच जाते हैं वहां, तो इस व्यर्थ के कर्मत्यागी भी नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म के त्याग के लिए भी युद्ध के उपद्रव को मैं मोल क्यों लूं! विराट ऊर्जा की जरूरत है। जितनी कर्म को करने के लिए जरूरत । ये सब सपने उसकी आंखों में फिर तिर गए होंगे। ये सब उसकी है, उतनी ही कर्म को छोड़ने के लिए जरूरत है। हीरे को पकड़ने के आंखों में भाव फिर आ गए होंगे। उसे फिर जस्टीफिकेशन मिला लिए मुट्ठी में जितनी ताकत चाहिए, हीरे को छोड़ने के लिए और | होगा। उसे फिर लगा होगा कि फिर मैं ही ठीक था, फिर कृष्ण क्यों भी ज्यादा ताकत चाहिए। देखें छोड़कर, तो पता चलेगा। एक रुपए। इतनी देर तक लंबी बातचीत किए! जब मैंने गांडीव रखा था और को हाथ में पकड़ें। पकड़े हुए खड़े रहें सड़क पर, और फिर छोड़ें। शिथिल गात होकर बैठ गया था, तभी मुझसे कहते कि हे अर्जुन, पता चलेगा कि पकड़ने में कम ताकत लग रही थी, छोड़ने में ज्यादा हे महाबाहो, तू तो कर्म-संन्यासी हो गया है। और कर्म-संन्यास से ताकत लग रही है।
भी लोग वहीं पहुंच जाते हैं, जहां कर्म करने वाले पहुंचते हैं। प्रसन्न कर्म-संन्यास भी शक्ति मांगता है। और कर्मयोग तो शक्ति हुआ होगा मन में कहीं। जो चाहता था, वही करीब दिखा होगा। मांगता ही है। आलसी के लिए दोनों मार्ग नहीं हैं। आलसी, अगर वही कृष्ण के मुंह से भी उसे सुनाई पड़ा होगा। वही कृष्ण की बात हम ठीक से कहें, तो थर्ड सेक्स है, नपुंसक। बहिर्मुखी भी नहीं है। में भी ध्वनित हुआ होगा। वह, अंतर्मुखी भी नहीं है; बीच की देहली पर खड़े हैं! थर्ड सेक्स, | उसे देखकर ही कृष्ण तत्काल कहते हैं, लेकिन अर्जुन, जब तक न पुरुष हैं, न स्त्री। न अंतर्मुखी, न बहिर्मुखी। बीच में खड़े हैं। उनकी | | आकांक्षा न छूट जाए और कर्म में निष्कामता न सध जाए, तब तक कोई भी यात्रा नहीं है। न वे भीतर जाते, न वे बाहर जाते। वे कहीं | | कोई व्यक्ति कर्म को छोड़ना आसान नहीं पाता है। जाते ही नहीं। वे अपनी देहली पर बैठे हुए हैं! भीतर जाने की हिम्मत | __ फिर दुविधा उन्होंने खड़ी कर दी होगी! अर्जुन से फिर छीन लिया नहीं जुटा पाते, बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जाने के लिए | होगा उसका मिलता हुआ आश्वासन। सांत्वना बंधती होगी, तो हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए। यात्रा कोई भी हो, कहीं से भी | | कंसोलेशन उतर रहा होगा उसकी छाती पर, वह फिर हटा दिया जाना हो, बिना ऊर्जा, बिना साहस के कोई यात्रा संभव नहीं है। | होगा। कहा कि नहीं, आकांक्षा छोड़कर कर्म का जो अभ्यास न कर
| ले, वह कर्म भी छोड़ पाए, यह बहुत कठिन है। क्योंकि जो
| आकांक्षा नहीं छोड़ पाता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! जो आकांक्षा ___संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। | तक छोड़ नहीं सकता,, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! और जो
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।६।। आकांक्षा नहीं छोड़ सकता और कर्म छोड़कर भाग जाएगा, बहुत परंतु हे अर्जुन! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात | डर तो यही है कि सिर्फ कर्म ही छूटेगा, आकांक्षा न छूटेगी। खतरा मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कमों में | है। कर्म छोड़ना एक लिहाज से आसान है। कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। और भगवत् - एक चोर है। हम जब उसे जेल में बंद कर देते हैं, तो चोरी का स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म - कर्म छूट जाता है। कर्म-संन्यास हो गया? कर्म तो छूट गया। चोरी
परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। | तो नहीं कर पाता है अब। लेकिन चोर होना बंद नहीं होता। चोर
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