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________________ O सम्यक दृष्टिल आदमी इस तरह करेगा, जैसे कि न करना पड़ता, तो अच्छा। अगर दौड़ने वाली है, तो आपका मार्ग होगा, निष्काम कर्म। अगर बिना उठे चल जाता, तो अच्छा। देखी है रमण की फोटो! वह एक आपकी चित्त-दशा अकर्म की तरफ दौड़ने वाली है, तो आपका ही गद्दी पर बैठे रहेंगे दिनभर। वह तो हाथ ही मुश्किल में पड़ मार्ग होगा, कर्म-संन्यास। दोनों से ही पहुंच जाते हैं। दोनों से ही जाएगा टिका-टिका और हाथ ही कहेगा कि अब बहुत हो गया, लोग पहुंचते रहे हैं। दोनों से ही सदा पहुंचते रहेंगे। जरा करवट बदल लो, तो वे करवट बदल लेंगे। लेकिन प्रत्येक युग में पलड़ा बदल जाता है। कभी अंतर्मुखता एक्सट्रोवर्ट को यह बात बिलकुल समझ में नहीं आएगी कि यह | की धारा होती है जगत में, तो अंतर्मुखी धर्म निर्मित होते हैं। और आदमी आलसी है! यह क्या कर रहा है? यह तो तमस हो गया, यह | जितने धर्म निर्मित हुए भारत में, वे करीब-करीब सब अंतर्मुखी हैं। तो आलस्य हो गया। कुछ कर्म करो! लेकिन ऐसे व्यक्ति के भीतर वही धारा थी। भारत के बाहर जितने धर्म निर्मित हुए, वे सब कर्म उठता ही नहीं। वह हंसेगा। सब शांत हो गया भीतर। भीतर लौट | बहिर्मुखी हैं। चाहे इस्लाम हो और चाहे ईसाइयत हो, धारा गई धारा। वह अपने में लीन हो गया। कर्म तक पहुंचने की कोई | बहिर्मुखता की थी। इसलिए ईसाइयत और इस्लाम में ध्यान की संभावना नहीं रही। कोशिश भी करे, तो नहीं पहुंच सकता। धारणा विकसित न कर पाए वे। प्रेयर, प्रार्थना से आगे बात नहीं बहिर्मुखी उलटी हालत में होता है। बहिर्मुखी एक जगह बैठ गई। प्रार्थना से काम चल गया। ध्यान की धारणा तो अंतर्मुखी जाए, तो टांग ही हिलाता रहेगा, कुछ नहीं तो। कुछ भी नहीं हिलाने साधकों ने विकसित की। का मौका है, तो बैठकर टांग ही हिला रहा है! आप अपने लिए खोज लें। और कठिन नहीं है खोजना। जांच बुद्ध के सामने एक दिन एक आदमी बैठकर टांग हिला रहा है। बड़ी आसान है। इसलिए और भी आसान है कि सौ में से निन्यानबे बोल रहे हैं बुद्ध। उन्होंने बोलना बीच में बंद कर दिया। उन्होंने मौके पर बहिर्मुखी होंगे आप। एकाध आदमी अंतर्मुखी होता है। कहा, यह टांग क्यों हिला रहे हो? उस आदमी ने कहा, आप भी । लेकिन दो-तीन जांच-परख के लिए नियम बना लें अकेले में कैसा कहां की फिजूल की बात में आ गए! यों ही हिला रहे हैं। हमको लगता है, भीड़ में कैसा लगता है? स्वाद क्या है दोनों बातों का? कुछ पता ही नहीं था। बुद्ध ने कहा, तेरी टांग, और तुझे पता नहीं, अकेले में स्वाद मुंह का कड़वा हो जाता है कि मिठास से भर जाता और हिल रही है! टांग किसकी है यह? उस आदमी ने कहा, है तो है? भीड़ में स्वाद मधुर हो जाता है कि तिक्त हो जाता है? कर्म में मेरी। फिर तू क्यों हिला रहा है? उसने कहा, आप बड़ा कठिन अच्छा लगता है कि विश्राम में डूब जाते हैं, तो अच्छा लगता है? सवाल पूछते हैं। इतना ही कह सकता हूं कि बिना हिलाए मैं रह ध्यान रहे, विश्राम का मतलब आलस्य नहीं है। आलस्य और नहीं सकता। कुछ न कुछ हिलाता ही रहूंगा। रात में भी बड़बड़ाता | विश्राम में बड़ा फर्क है। आलसी विश्राम में नहीं होता, सिर्फ श्रम हूं, नींद में भी बोलता हूं। से बचाव में होता है; एस्केप में होता है। विश्राम तो बड़ी पाजिटिव ___ महावीर जैसा आदमी एक ही करवट सोता है रातभर। करवट | स्थिति है, निगेटिव नहीं है। विश्राम तो बड़ी जीवंत अवस्था है। नहीं बदलेंगे रातभर। रातभर जहां पैर है वहीं पैर, जहां हाथ है वहीं बुद्ध की मूर्ति देखें, तो आलसी नहीं मालूम पड़ते। चेहरे पर हाथ! रात में एक दफा करवट न बदलेंगे। कोई पूछता है महावीर चमक है। आंखों में ज्योति है। शरीर पर आलस्य की छाया नहीं है। को या बुद्ध को...। बुद्ध भी करवट नहीं बदलते रातभर। वे कहते, शरीर पर जागती हुई सुबह की रोशनी है। महावीर को देखें, खड़े अकारण! एक ही करवट से चल जाता है। | हुए उनकी मूर्ति को देखें, तो भीतर से प्राण फूटे पड़ रहे हैं, बहे जा ___ अब यह जो भाव दशा है। हम तो जागे में भी करवट बदलते रहते | रहे हैं। आलस्य नहीं है, विश्राम है। हैं। वे कहते हैं, नींद में एक ही करवट से...। एक करवट भी जैसे आलस्य, कहना चाहिए, चमकहीन होता है। विश्राम चमक से मजबूरी है! यानी एक करवट के बिना तो सो ही नहीं सकते। एक | भरा होता है। विश्राम-भीतर तो झरना लबालब भरा है ऊर्जा का, करवट तो लेनी ही पड़ेगी, इसलिए लेते हैं। मिनिमम, जो न्यूनतम | लेकिन कर्म की इच्छा नहीं है। आलस्य-कर्म की तो इच्छा है, संभव है, वह लेते हैं। आप कितनी करवट लेते हैं? मैक्जिमम! लेकिन शक्ति नहीं है, ऊर्जा नहीं है, इसलिए पड़े हैं। कर्म की तो जितनी ज्यादा संभव है। बिस्तर भी थक जाता है रातभर! | बड़ी इच्छा है। दिल तो अपना भी है कि सिकंदर हो जाते, कि इंदिरा अपने को पहचानें। यदि आपकी चित्त-दशा कर्म की तरफ | गांधी हो जाते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाकी ऊर्जा नहीं है; 307]
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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