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गीता दर्शन भाग-20
बहिर्मुखी व्यक्ति परमात्मा को प्रार्थना कर-करके पहुंचता है। इसलिए अगर क्रिश्चियनिटी में या इस्लाम में अंतर्मुखी व्यक्ति
खयाल किया आपने। परमात्मा की यात्रा करने वाला आखिर में पैदा हो जाए. तो मश्किल में पड़ जाता है. क्योंकि वेधर्म बहिर्मखी कहेगा, परमात्मा है, मैं नहीं हूं। अंतर्मुखी अंत में कहेगा, मैं ही हूं, | हैं। अगर महावीर के धर्म में बहिर्मुखी पैदा हो जाए, तो मुश्किल में अहं ब्रह्मास्मि, और कोई परमात्मा नहीं है। दोनों एक ही जगह पहुंच | | पड़ जाता है, क्योंकि वह धर्म अंतर्मुखी है। गए। लेकिन उनके वक्तव्य बड़े भिन्न हैं। उनकी यात्रा बड़ी भिन्न है। ___ इसलिए मोहम्मद के पीछे चलने वाले लोगों ने नासमझी से मंसूर भिन्न है, विरोधी नहीं। और चूंकि एक ही जगह पहुंचाती है, इसलिए | | जैसे अंतर्मुखी को काटकर दो टुकड़े कर दिया। क्योंकि मंसूर जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक ही है।
उनकी समझ में नहीं पड़ा। मंसूर कहने लगा, अहं ब्रह्मास्मि, मैंने कहा आपसे कि कृष्ण जो संदेश दे रहे हैं अर्जुन को, वह | | अनलहक, मैं ही ब्रह्म हूं। उन्होंने कहा, पागल हो गए हो! कभी बहिर्मुखी के लिए है। इसलिए इस बात की बहुत संभावना है कि | भूलकर यह मत कहना कि तुम परमात्मा हो। कहां परमात्मा और आने वाले भविष्य में गीता का मूल्य रोज-रोज बढ़ता जाएगा। बुद्ध | | कहां हम नाचीज? यह तो कुफ्र है। यह तो तुम काफिर की बात और महावीर से भी ज्यादा शायद कृष्ण भविष्य के लिए ज्यादा | बोल रहे हो। तुम परमात्मा होने का दावा नहीं कर सकते हो। उपयोगी सिद्ध होंगे। क्योंकि चेतना बहिर्मुखी होती चली जाती है। | लेकिन मंसूर ने कहा कि मेरे अलावा और कौन परमात्मा होने का आदमी बाहर, और बाहर, और बाहर भटकता है।
दावा कर सकता है! मैं कहता हूं, तुम भी परमात्मा होने का दावा अगर बाहर ही भटकना है, तो परमात्मा पर भटके, प्रार्थना का कर सकते हो। तब तो उन्होंने कहा कि यह हद की बात कर रहा है! इतना ही मतलब है। बाहर ही भटकना है, धन पर भटकते हैं, धन | यह आदमी पागल हो गया। पर न भटकें, परमात्मा पर भटकें। बाहर ही चेतना जाती है, मित्र । बहिर्मुखी व्यवस्था है धर्म की, तो अंतर्मुखी व्यक्ति पागल ही खोजना है, तो शरीरधारी मित्र को न खोजें, अशरीरी मित्र को | | मालूम होने लगेगा। मंसूर को काट डाला, मार डाला। और खोज लें। बिना कंपेनियन के नहीं चलता, तो साधारण साथी मत | | कठिनाई यह है कि बहिर्मुखी व्यक्ति कभी भी अंतर्मुखी की भाषा खोजें; परम साथी खोज लें। अगर पढ़ना ही है अखबार, तो | | नहीं समझ पाएगा। अंतर्मुखी की भाषा बहिर्मुखी नहीं समझ
बार न पढकर गीता ही पढ लें। अगर सनना ही है संगीत. तो पाएगा। उन दोनों की भाषाएं बडी दर हैं। बडी कठिनाई है। जरूरी क्या है कि फिल्म का संगीत सुनें! मीरा का पद या कबीर | इसलिए मैंने कहा कि बहिर्मुखता के लिए निष्काम कर्मयोग; का पद सुन लें। बाहर ही जाएं, लेकिन बाहर की यात्रा को ही धर्म | अंतर्मुखता, इंट्रोवर्शन के लिए कर्म-संन्यास। की यात्रा बना लें। तब आप अपराधी अनुभव नहीं करेंगे और ऐसा | असल में जो व्यक्ति अंतर्मुखी है, उसे करने की इच्छा ही नहीं नहीं लगेगा कि मैं कोई पाप कर रहा हूं।
| होती। उसे कर्म का भाव ही पैदा नहीं होता। क्योंकि कर्म का अर्थ अगर बहिर्मुखी धर्म में कोई अंतर्मुखी व्यक्ति फंस जाए, तो वह | | ही बाहर जाकर करना है। भीतर तो कर्म हो नहीं सकता। भीतर कर्म भी दिक्कत में पड़ेगा। वह अगर परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर का कोई उपाय नहीं है। एक्शन बाहर ही जाकर करना पड़ेगा। भीतर खड़ा हो, आंख बंद करेगा, परमात्मा खो जाएगा। मूर्ति नदारद हो | कोई कर्म नहीं हो सकता। भीतर तो सिर्फ चैतन्य हो सकता है, जाएगी, वह अकेला ही रह जाएगा। वह भी पछताएगा। वह भी कांशसनेस हो सकती है, एक्शन नहीं हो सकता। और अगर किसी कहेगा कि मैं कैसा पापी हूं! परमात्मा का इतना ध्यान करता हूं, | को कर्म करना हो, तो बाहर ही हो सकता है, भीतर नहीं हो सकता। लेकिन भीतर मूर्ति नहीं बनती।
| भीतर आप क्या कर्म करिएगा? भीतर सिर्फ चेतना हो सकती है। अंतर्मुखी के भीतर परमात्मा की मूर्ति नहीं बनेगी, सिर्फ ___ इसलिए जो व्यक्ति अंतर्मुखी चेतना में साधना कर रहा हो, वह बहिर्मुखी के भीतर बन सकती है। अंतर्मुखी तो तत्काल भीतर चला | | धीरे-धीरे कर्म से हटता चला जाएगा। कहना ठीक नहीं है कि कर्म जाएगा, मूर्ति सब बाहर रह जाएंगी। परमात्मा की मूर्ति भी बाहर रह | से हटता चला जाएगा, धीरे-धीरे कर्म उससे हटते चले जाएंगे। जाएगी। मूर्ति मात्र बाहर रह जाएगी। क्योंकि मूर्त का अर्थ है, | | अब जैसे कि रमण हैं। सारा कर्म गिर जाएंगा। बस उठने-बैठने बाहर। अमूर्त ही रह जाएगा। तो बेचारा वह भी तकलीफ में पड़ेगा, के, खाने-पीने के, इतने ही अत्यंत अत्यल्प, जीवन के लिए वह भी घबड़ाएगा।
बिलकुल ही अनिवार्य कर्म शेष रह जाएंगे। वह भी रमण जैसा
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