SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य एक–जानने वाले अनेक छोड़ देता, तो उसके भीतर से परमात्मा ही बोलना शुरू हो जाता सुनने वाला बदल गया और युग के साथ भाषा बदल गई। है। जैसे ही मैं की आवाज बंद होती है, वैसे ही परमात्मा की आवाज महावीर जो कहते हैं, वह वही कहते हैं, जो वेदों ने कहा है; पर शुरू हो जाती है। जैसे ही मैं मिटता हूं, वैसे ही परमात्मा ही शेष | भाषा बदल गई, बोलने वाला बदल गया, सुनने वाले बदल गए। रह जाता है। और कई बार शब्दों और भाषा की बदलाहट इतनी हो जाती है कि यहां जब कृष्ण कहते हैं, मैंने ही कहा था सूर्य से, तो यहां वे दो अलग-अलग यगों में प्रकट सत्य विपरीत और विरोधी भी व्यक्ति की तरह नहीं बोलते, समष्टि की भांति बोलते हैं। और मालूम पड़ने लगते हैं। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है मनुष्य जाति के इतिहास में इससे बड़ी दुर्घटना पैदा हुई है। कि बहुत क्षणों में वे अर्जुन के मित्र की भांति बोलते हैं, जो कि इस्लाम या ईसाइयत या हिंदू या बौद्ध या जैन, ऐसा मालूम पड़ते हैं समय के भीतर घटी हुई एक घटना है। और बहुत क्षणों में वे कि विरोधी हैं, राइवल्स हैं, शत्रु हैं। ऐसा प्रतीत होता है, इन सबके परमात्मा की तरह बोलते हैं, जो समय के बाहर घटी घटना है। सत्य अलग-अलग हैं। इन सबके युग अलग-अलग हैं, इन कृष्ण पूरे समय दो तलों पर, दो डायमेंशंस में जी रहे हैं। इसलिए सबके बोलने वाले अलग-अलग हैं, इन सबके सुनने वाले कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के भीतर हैं, और कृष्ण के अलग-अलग हैं, इनकी भाषा अलग-अलग है; लेकिन सत्य जरा बहुत-से वक्तव्य समय के बाहर हैं। जो वक्तव्य समय के बाहर | भी अलग नहीं है। और धार्मिक व्यक्ति वही है, जो इतने विपरीत हैं, वहां कृष्ण सीधे परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। और जो वक्तव्य शब्दों में कहे गए सत्य की एकता को पहचान पाता है; अन्यथा जो समय के भीतर हैं, वहां वे अर्जुन के सारथी की तरह बोल रहे हैं। व्यक्ति विरोध देखता है, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है। इसालए जब व अजुन से कहत है, है महाबाहो! तब वे अर्जुन के तो कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी कह रहे हैं। वे यह मित्र की तरह बोल रहे हैं। लेकिन जब वे अर्जुन से कहते हैं, सर्व कह रहे हैं कि यही सत्य, ठीक यही बात पहले भी कही गई है। यहां धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज-सब छोड़, तू मेरी शरण में एक बात और भी खयाल में ले लेनी जरूरी है। आ—तब वे अर्जुन के सारथी की तरह नहीं बोल रहे हैं। कृष्ण ओरिजिनल होने का, मौलिक होने का दावा नहीं कर रहे इसलिए गीता, और गीता ही नहीं, बाइबिल या कुरान या बुद्ध हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह मैं ही पहली बार कह रहा हूं; यह और महावीर के वचन दोहरे तलों पर हैं। और कब बीच में परमात्मा नहीं कह रहे हैं कि मैंने ही कुछ खोज लिया है। वे यह भी नहीं कह बोलने लगता है. इसे बारीकी से समझ लेना जरूरी है. अन्यथा रहे हैं कि अर्जन, त सौभाग्यशाली है, क्योंकि सत्य को तू ही पहली समझना मुश्किल हो जाता है। बार सुन रहा है। न तो बोलने वाला मौलिक है, न सुनने वाला ___ जब कृष्ण कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ जा, तब इस मौलिक है; न जो बात कही जा रही है, वह मौलिक है। इसका यह मेरी शरण से कृष्ण का कोई भी संबंध नहीं है। तब इस मेरी शरण मतलब नहीं है कि पुरानी है। से परमात्मा की शरण की ही बात है। अंग्रेजी में जो शब्द है ओरिजिनल और हिंदी में भी जो शब्द है इस सूत्र में जहां कृष्ण कह रहे हैं कि यही बात मैंने सूर्य से भी मौलिक, उसका मतलब भी नया नहीं होता। अगर ठीक से समझें, कही थी-मैंने। इस मैं का संबंध जीवन की परम ऊर्जा, परम तो ओरिजिनल का मतलब होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का भी शक्ति से है। और यही बात! इसे भी समझ लेना जरूरी है। अर्थ होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का अर्थ भी नया नहीं होता। सत्य अलग-अलग नहीं हो सकता। बोलने वाले बदल जाते हैं, | ओरिजिनल का अर्थ भी नया नहीं होता। सुनने वाले बदल जाते हैं; बोलने की भाषा बदल जाती है; बोलने __ अगर इस अर्थों में हम समझें मौलिक को, तो कृष्ण बड़ी मौलिक के रूप बदल जाते हैं, आकार बदल जाते हैं, सत्य नहीं बदल बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, समय के मूल में यही बात मैंने सूर्य जाता। अनेक शब्दों में, अनेक बोलने वालों ने, अनेक सुनने वालों से भी कही थी; वही सूर्य ने अपने पुत्र को कही थी; वही सूर्य के से वही कहा है। | पुत्र ने अपने पुत्र को कही थी। यह बात मौलिक है। मौलिक अर्थात उपनिषद जो कहते हैं, बुद्ध उससे भिन्न नहीं कहते; लेकिन मूल से संबंधित, नई नहीं। ओरिजिनल, कंसर्ड विद दि ओरिजिन; बिलकुल भिन्न कहते मालूम पड़ते हैं। बोलने वाला बदल गया, वह जो मूल-स्रोत है, जहां से सब पैदा हुआ, वहीं से संबंधित है।
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy