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गीता दर्शन भाग-2
और जीत लिया है अंतःकरण और शरीर जिसने, तथा त्याग | वासना अपने जाल बुनती रहती है। भोजन का काम आटोमैटिक दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने, ऐसा आशारहित पुरुष | होता है, यंत्रवत होता है, मशीन की तरह होता है। होशपूर्वक नहीं केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पाप को नहीं होता, बेहोशी में होता है। आपकी कोई जरूरत ही नहीं होती। आप प्राप्त होता है।
| कहीं भी हों, दुकान पर बैठे रहें, दिमाग से, मन से; हाथ भोजन
को मुंह में डालते रहेंगे; जीभ उसको भीतर सरकाती रहेगी; पेट
| उसको पचाता रहेगा-यंत्रवत। आपकी मौजूदगी नहीं होती। नसने छोड़ी आशा, आकांक्षा, भविष्य, फल की स्पृहा; - कृष्ण या बुद्ध जैसे व्यक्ति जो करते हैं, वही करते हैं। पूरे मौजूद IUI जिसने छोड़ा अभिमान, जिसने छोड़ा दूसरे की आंखों | । होते हैं। उनकी टोटल प्रेजेंस वहां होती है। यह अंतर गहरा है और
में अपने प्रतिबिंब को इकट्ठा करने का मोह-ऐसा इसके गहरे परिणाम हैं। क्या गहरे परिणाम होंगे? व्यक्ति कर्म की जो आवश्यकता है, या जो आवश्यक कर्म हैं शरीर जो व्यक्ति भोजन करते हुए पूरा भोजन करते समय मौजूद है, के, उन्हें करता रहता है। भूख लगती है, भोजन कर लेता है। नींद वह ज्यादा भोजन कभी न कर पाएगा। वह कम भोजन भी न करेगा, आती है, सो जाता है। सर्दी लगती है, वस्त्र ओढ़ लेता है। गर्मी | ज्यादा भी न करेगा। जो व्यक्ति भोजन करते हुए मौजूद नहीं है, लगती है. वस्त्र अलग कर देता है। जो आवश्यक है शरीर के लिए. | बहुत कम संभावना है कि वह सम्यक आहार कर सके। वह या तो करता रहता है, लेकिन फिर कर्मबंध को उपलब्ध नहीं होता। कम करेगा, या ज्यादा करेगा। अगर वासना बहुत तेजी से दौड़ रही
महावीर भी उठते और चलते हैं, वैसे ही जैसे कोई और उठता | है, जल्दी भागने को है, तो कम करेगा। या कम समय में ज्यादा और चलता है। बुद्ध भी भोजन करते हैं, वैसे ही जैसे कोई और भी | करेगा, वह भी खतरनाक है। और ज्यादा तो करेगा ही। क्यों? भोजन करता है। कृष्ण भी वस्त्र पहनते हैं, वैसे ही जैसे कोई और | शरीर अंधा है, शरीर के पास अपनी आंख नहीं है। शरीर पर पहनता है। लेकिन बिलकुल वैसे ही नहीं; बुनियादी अंतर भी है। काम को छोड़ना, अंधे के हाथ में काम को छोड़ना है। शरीर ठीक वैसे ही नहीं, गहरे में भेद है। और बड़ा भेद है। गहरे में जो | | मैकेनिकल है, हैबीचुअल है। ग्यारह बजे आप रोज खाना खाते हैं। भेद है, वह देख लेना चाहिए।
| भूख न भी लगी हो, तो भी शरीर कहता है, भूख लगी है। अगर जब साधारणतः कोई आदमी भोजन करता है, तो सिर्फ भोजन घड़ी किसी ने आगे-पीछे कर दी हो और अभी दस ही बजे हों, घड़ी नहीं करता। भोजन करते हुए और बहुत कुछ भी करता है। में ग्यारह बज जाएं; घड़ी देखी, शरीर फौरन कहता है, भूख लगी!
आप खयाल करना, जब भोजन करते हों। सिर्फ भोजन नहीं अभी ग्यारह बजे नहीं हैं। करते, भोजन करते हुए और हजार काम भी आपका मन करता ___ ग्यारह बजे भूख लगती है। एक घंटे खाना न खाएं, तो लोग रहता है। हो सकता है, दुकान पर हों, दफ्तर में हों, बाजार में हों, कहते हैं, भूख मर जाती है। अगर भख आथेंटिक हो, असली हो, मंदिर में हों; भोजन की थाली पर हों और साथ ही दुकान पर हों। | तो बढ़नी चाहिए; मरनी नहीं चाहिए। भूख थी ही नहीं, सिर्फ होता ही है। फिर इससे उलटा भी होता है, होगा ही, कि दुकान पर | हैबीचुअल ट्रिक, शरीर की आदत कि रोज चौबीस घंटेभर बाद पेट होंगे और भोजन की थाली पर होंगे।
| में चीजें डाली जाती हैं। ठीक चौबीस घंटे बाद उसने कहा कि __भोजन करते हुए, साधारणतः, हम भोजन ही नहीं करते और | डालो, समय हो गया। अंधे की तरह, मशीन की तरह, यंत्र की तरह हजार काम भी करते हैं। कृष्ण जैसा या बुद्ध या महावीर जैसा | सूचना कर देता है। फिर कल जितनी डाली थीं, उतनी डालो। व्यक्ति जब भोजन करता है, तब भोजन ही करता है! फिर और __ कल की जरूरत और हो सकती थी, आज की जरूरत और। रोज कुछ नहीं करता। एक तो यह अंतर स्पष्ट समझ लें। यह अंतर | जरूरत बदलती जाती है। बचपन में जरूरत और होती है, जवानी गहरा है! ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता है। भीतर से खोजेंगे, तो में और होती है, बुढ़ापे में और होती है। दिखाई पड़ेगा।
जवानी की आदत खाने की, बुढ़ापे में भी नहीं छूटती। शरीर को क्यों? हम भोजन करते हुए और पच्चीस काम मन में क्यों करते | जरूरत कम रह जाती है, लेकिन शरीर पुरानी आदत से उतना ही हैं? क्योंकि वासना है। भोजन का काम शरीर करता रहता है, खाए चला जाता है। तो जवानी में जिस भोजन ने शरीर को फायदा
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