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________________ ॐ कामना-शून्य चेतना अकड़े! दूसरा मौजूद हुआ कि भीतर कुछ गड़बड़ हुई। दूसरा वहां | न करने जैसा होता। ऐसा पुरुष सब करते हुए भी, करने के बाहर आया कि इधर भीतर भी कोई और आया। वह दूसरे की मौजूदगी | होता। ऐसे पुरुष के लिए कर्म का जगत अभिनय का जगत हो तत्काल भीतर मैं को पैदा कर देती है। और फिर अगर दूसरे ने हाथ | जाता। एक्शन का जगत, एक्टिंग का जगत हो जाता। जोड़ लिए, तो फिर अभिमान का गुब्बारा फूला! या दूसरा भी ऐसा पुरुष सब करता है और सांझ जब सोता है, तो ऐसे सो जाता अकड़कर बिना हाथ जोड़े निकल गया, तो अभिमान का गुब्बारा | | है किए हुए को झाड़कर, जैसे दिनभर की धूल को वस्त्रों से झाड़कर सिकुड़ा। वह सब दूसरे पर निर्भर है। या दूसरा अगर ऐसा हुआ कि | | सांझ सो जाता है। ऐसे किए हुए को झाड़कर सो जाता है। सुबह जब आपको ही हाथ जोड़ने पड़े, तो बड़ी पीड़ा है, बड़ी पीड़ा है! उठता है, तो फिर ताजा, फ्रेश। ताजा, कल के कर्मों के भार से बंधा यह जो अभिमान है, यह पराश्रित भाव है; इसका सुख भी, | | हुआ नहीं; कल जो किया था, उसकी रेखाओं से दबा हुआ नहीं। इसका दुख भी। कल जो हुआ; उसकी धूल से गंदा नहीं, ताजा, फिर ताजा। जो व्यक्ति स्वयं से संबंधित हो जाता है-स्वयं के मूल स्रोतों | | असल में कल भी दूर है। हर क्षण ऐसा पुरुष, हर क्षण अतीत से, ब्रह्म से, अस्तित्व से-उसका अभिमान खड़ा नहीं होता फिर। के बाहर हो जाता है। हर क्षण, गए हुए क्षण और गए हुए कर्म के अभिमान खो ही जाता है। जो स्वयं है, उसके पास अभिमान नहीं | बाहर हो जाता है। कुछ उस पर टिकता नहीं है; सब विदा हो जाता होता। और जो स्वयं नहीं है, सिर्फ दूसरों के खयालों का जोड़ है, | | है। क्योंकि टिकाने और अटकाने वाला अहंकार नहीं है। अटकाने और दूसरे क्या कहते हैं, पब्लिक ओपिनियन ही है जिसका जोड़, | | वाली चीज उसके ऊपर नहीं है, जहां कर्म अटकते हैं और कर्ता अखबार की कटिंग को इकट्ठा करके जिसने अपने को बनाया | | निर्मित होता है। ऐसा पुरुष करते हुए न करता हुआ है। ऐसा पुरुष है कि किस अखबार में क्या बात छपी है उसके बाबत, पड़ोसी न करते हुए भी करता हुआ है। क्या कहते हैं, गांव के लोग क्या कहते हैं, दूसरे क्या कहते | ऐसा पुरुष ठीक ऐसा है, जैसा कबीर ने कहा कि बहुत जतन से हैं-दूसरों के ओपिनियन को इकट्ठा करके जो खड़ा है, वह | | ओढ़ी चदरिया, बहुत जतन से ओढ़ी। जतन से! बड़ा प्यारा शब्द आदमी अभिमान को बढ़ाए जाता है। बढ़ता है, तो रस आता है। | | है जतन। बड़ी होशियारी से, बड़ी कुशलता से चादर ओढ़ी; और रस वैसा ही, जैसा खुजली को खुजलाने से आता है। और कोई ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। रस नहीं है। खुजली खुजलाने का रस! बड़ा अच्छा लगता है, बड़ा __ कबीर ने मरते वक्त कहा है कि बहुत संभालकर ओढ़ी चादर, मीठा लगता है। लेकिन उसे पता नहीं है कि वे सब नाखून जो मिठास | | जीवन की चादर; और फिर ज्यों कि त्यों धरि दीन्हीं। जैसी मिली ला रहे हैं, थोड़ी देर में लहू ले आएंगे। और वे नाखून जो मिठास ला थी, वैसी ही रख दी। जरा भी रेखा नहीं छूटी। पूरी जिंदगी के रहे हैं, थोड़ी देर में ही पायजनस हो जाएंगे। उसे पता नहीं कि वे | | अनुभव की, कर्म की कोई रेखा, कोई धब्बा, कोई दाग चादर पर नाखून जो रस ला रहे हैं और मिठास दे रहे हैं, जल्दी ही सेप्टिक हो नहीं छूटा। ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। जाएंगे। उसे पता नहीं है; खुजला रहा है। जितना खुजलाता है, उतनी ऐसा पुरुष सब करते हुए भी न करता है। वह चादर को ऐसा का समालम पड़ती है: उतनी खजली बढती है। खजली बढती है. ऐसा ही परमात्मा को सौंप देता है कि संभालो। जैसी दी थी. वैसी तो खुजलाना पड़ता है। खुजली के भी सुख हैं। ही वापस लौटाता हूं। अहंकार का सुख, अभिमान का सुख, खुजली का सुख है। | यह जो कर्म के बीच अकर्म की स्थिति है, बड़ी जतन की बहुत बीमार, बहुत रुग्ण है, लेकिन है। अंततः पीड़ा है, लेकिन | है-बड़े होश की, बड़ी अवेयरनेस की, बड़े साक्षी-भाव की। प्रारंभ में सुख का भाव है। जहां सध जाती है, वहां जीवन मिल जाता है। जहां नहीं सध पाती, कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष कर्म के अभिमान से नहीं भरता। भर | | वहां जीवन के नाम पर हम सिर्फ धोखे में होते हैं। नहीं सकता। ऐसे पुरुष के पास अभिमान नहीं बचता, जिसको भर सके। गुब्बारा ही खो जाता है, जिसमें कि अभिमान को भरा जा निराशार्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । ऐसा पुरुष करते हुए भी अकर्ता होता। ऐसा पुरुष करते हुए भी | शारीर केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। २१ ।। मिठास सके। 103
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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