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गीता दर्शन भाग-26
जाती है।
है, गया को अलग कर दिया है।
| निचोड़ने में सफल हो जाते हैं। और कर्म का अभिमान तब आहत इतना ही फासला है, आ गया सुख; आ, गया सुख। पहचान हो जाता है, पीड़ित हो जाता है, धूल-धूसरित हो जाता है, जब आप भी नहीं पाते कि आ गया, और दूसरी पंक्ति घटित हो जाती है। सच | दूसरों से सुख निचोड़ने में सफल नहीं हो पाते; निचोड़ते सुख हैं तो यह है कि जैसे ही हम पहचानते हैं कि सुख आ गया, सुख जा | | और दुख निचुड़ आता है। चुका होता है। इतना ही क्षण, क्षणभर की धुन बजती है और चली कर्म का अभिमान सफलता का अभिमान है। सफलता
अभिमान है। सफलता किस बात की? दूसरे से सुख निचोड़ लेने कृष्ण कहते हैं, संसार-आश्रित ऐसे पुरुष के सुख नहीं हैं। की। सारी सफलताएं दूसरों से सुख निचोड़ लेने की सफलताएं हैं। ऐसे पुरुष का आनंद आश्रित आनंद नहीं है। अनाश्रित, | जब आप सफल हो जाते हैं, तब अभिमान भर जाता है; तब आप अनकंडीशनल, बेशर्त, अकारण है। ऐसे पुरुष का आनंद कहीं से | फूलकर कुप्पा हो जाते हैं; जैसे कि रबर के गुब्बारे में बहुत हवा भर आता नहीं, इसलिए फिर कहीं जा भी नहीं सकता। ऐसे पुरुष का | दी गई हो। पर गुब्बारे को बेचारे को पता नहीं कि वह जो फूल रहा आनंद परमात्मा पर, ब्रह्म पर, ब्रह्म से ही स्रोत पाता है। ब्रह्म से है, वह फूटने के रास्ते पर है। ज्यादा फूलेगा, तो फूटेगा। अर्थात स्वयं से ही। अपनी ही गहराइयों से उठते हैं झरने। अपने | लेकिन फूलते वक्त किसको पता होता है कि फूटने के रास्ते की ही अंतस से आता है आनंद। फिर खोता नहीं, क्योंकि ब्रह्म | | यात्रा होती है। फूलते वक्त मन आनंद से भरता जाता है। मन होता क्षणभंगुर नहीं है।
| है, और हवाएं भर जाएं, और फूल जाऊं; और सफलताएं मिल संसार क्षणभंगुर है, इसलिए संसार से आया सुख क्षणभंगुर है। | जाएं, और फूल जाऊं! ब्रह्म शाश्वत है. इटरनल है। इसलिए ब्रह्म से जिसके स्रोत जड गए। लेकिन हमें पता नहीं कि फलना केवल फटने का मार्ग है। उसका आनंद शाश्वत है; लेकिन अकारण। ऐसा व्यक्ति कब हंसने | सफलता अंततः विफलता का द्वार है। तो जो भी सफल होगा, लगेगा, पता नहीं। ऐसा व्यक्ति कब नाचने लगेगा, पता नहीं। ऐसा विफल होगा। जो भी सुखी होगा, दुखी होगा। जो भी अभिमान को व्यक्ति कब आनंद के आंसुओं को बरसाने लगेगा, पता नहीं। ऐसे | भरेगा, आज नहीं कल फूटेगा और पंक्चर होगा। और जब व्यक्ति के भीतर स्रोत हैं, जो अकारण फूटते रहते हैं। और ऐसा अभिमान पंक्चर होता है, जैसे नर्क टूट पड़ा सब ओर से! व्यक्ति जिसे पा रहा है भीतर से, उसे कभी भी खोता नहीं है। स्वभावतः, जब अभिमान भरता है, तो ऐसा लगता है, स्वर्ग बरस ___ दो तरह के आश्रय हैं अस्तित्व में। पर-आश्रय; दूसरे के आश्रय रहा है सब ओर से। से मिला सुख। दूसरे के आश्रय से मिला हुआ सुख, दुख का ही ऐसा पुरुष, कृष्ण कहते हैं, कर्म के अभिमान से नहीं भरता है। दूसरा नाम है, दुख का ही चेहरा है। उघाड़ेंगे बूंघट और पाएंगे कि | भर ही नहीं सकता; क्योंकि ऐसा पुरुष पर से असंबंधित हो जाता दुख आया। एक, स्व-आश्रित। उसे स्व-आश्रित कहें या । है। यह बड़े मजे की बात है और थोड़ी सोच लेने जैसी। आश्रयमुक्त कहें। पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी ठीक है। अक्सर अभिमान को हम स्व से संबंधित समझते हैं, अभिमान हालांकि स्व-आश्रित दख होता नहीं। कहता हं एंफेसिस के लिए. सदा पर से संबंधित है। अभिमान को हम अक्सर स्वाभिमान तक पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी बेहतर है। क्योंकि उघाड़ेंगे | कह देते हैं। हम उसे स्व से संबंधित समझते हैं कि अभिमान जो चूंघट और पाएंगे सुख।
| है, वह स्वयं की चीज है। अभिमान स्वयं की चीज नहीं है। इस स्व-आश्रित सुख को ही कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं। | अभिमान पर की है, पर से संबंधित चीज है। इसलिए अकेले में संसार-आश्रित जिसके सुख नहीं हैं, आनंद नहीं है; | अभिमान को इकट्ठा करना मुश्किल है। अकेले में अभिमान नहीं संसार-आश्रित झंझावातों पर जिसके चित्त की लहरें आंदोलित नहीं | हो सकता। अदर ओरिएंटेड है। दूसरा चाहिए। . होती; जो संसार की बांसुरी पर नाचता नहीं-उस पुरुष को कर्म | इसलिए आपने देखा होगा, रास्ते पर अकेले जा रहे हों, तो एक करते हुए कर्म का अभिमान नहीं आता है।
| तरह से जाते हैं। सुनसान रास्ता हो, तो एक तरह से चलते हैं। फिर आएगा भी कैसे! कर्म का अभिमान कब आता है, खयाल है | | कोई रास्ते पर निकल आया कि रीढ़ सीधी हो जाती है। कोई और आपको? कर्म का अभिमान तब आता है, जब आप दूसरों से सुख आ गया रास्ते पर, तो अकड़ आ जाती है। दूसरे को देखा कि
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