SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “कल्पना में कौन जीता है? जो फ्रस्ट्रेटेड हैं, वे कल्पना में जीते हैं। जिनका जीवन विषाद से भरा है, दुख से भरा है, वे कल्पना में जीते हैं। क्यों? क्योंकि कल्पना में वे अपने विषाद की परिपूर्ति करते हैं, सब्स्टिट्यूट करते हैं।" अब संयम की ओशोप्रणीत व्याख्या देखिए। ओशो कहते हैं, “संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपकरण का काम लेता है— भोग का नहीं। संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से भोगता नहीं, केवल उपयोग लेता है। असंयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपयोग कम लेता है, भोग ज्यादा लेता है...।" लेकिन संयम का अर्थ हमने 'देखो मत, सुनो मत, छुओ मत' ऐसा ले रखा है। ओशो कहते हैं, "यह संयम का अर्थ नहीं है। इसमें संयम फलित नहीं होता–सिर्फ दमन, सप्रेशन फलित होता है। और दमन संयम नहीं है। दमन भीतर उबलता हुआ असंयम है।" दूसरी जगह ओशो कहते हैं, “दो खतरे हैं इंद्रियों के साथ। एक भोग का खतरा है, दूसरा दमन का। "कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, या महावीर जब कहते हैं जितेंद्रिय, या बुद्ध जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं-दमन; क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन में। और तभी भूल हो जाती है। ___ “जितेंद्रिय का अर्थ है : जानो इंद्रिय को। एक-एक इंद्रिय के रस को पहचानने से, परिचित होने से; एक-एक इंद्रिय की शक्ति के भीतर प्रवेश करने से जीत फलित होती है। ज्ञान विजय बन जाता है। ज्ञान ही विजय है।" ज्ञान-यज्ञ के बारे में ओशो कृष्ण को ही उद्धृत करते हैं, "इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान-यज्ञ है। श्रेष्ठतम ज्ञान-यज्ञ है। और ज्ञान-यज्ञ का अर्थ हुआ जिसमें कोई सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं है।" और अब ओशो आते हैं अपने प्रिय अमनीकरण की तरफ। "ज्ञान की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है, मुखर नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जवाब नहीं है; ज्ञान साइलेंस है, शून्य है।" और वे कहते हैं, “शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ। अशांति का नाम मन है।" ओशो की अलौकिक प्रतिभा के और कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। वे सभी लिखने लगूं तो उनका ही एक स्वतंत्र ग्रंथ होगा। यहां मैंने उनके मौलिक चिंतन का परिचय देने के हेतु कुछ गिने-चुने नमूने पेश किए हैं। __गीता की व्याख्या करते हुए ओशो की वस्तुनिष्ठता, ऑब्जेक्टिविटी के एक और पहलू से मैं अत्यंत प्रभावित हुआ। यद्यपि वे इस अदभुत ग्रंथ के प्रत्येक श्लोक का समादरपूर्वक विश्लेषण करते हैं, वे अपौरुषेय या परमात्मा-रचित कहकर इसे निर्दोष नहीं मानते। ___ "वेद अपौरुषेय हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा के द्वारा रचित हैं; क्योंकि परमात्मा के द्वारा तो सभी कुछ रचित है। अलग से वेद को रचा हुआ कहने का कोई कारण नहीं है। वेद अपौरुषेय हैं, इसका अर्थ यह कि जिन्होंने उन्हें रचा, उनके भीतर अपना कोई अहंकार नहीं था, उनके भीतर अपना कोई भाव नहीं था कि मैं। पुरुष विदा हो गया था, अपुरुष भीतर आ गया था।... हट गए थे वे; और जगह दे दी थी प्रभु की अनंत सत्ता को। उसके द्वारा ही इनके हाथों ने रचे। रचे तो आदमी ने ही। हाथ तो आदमी का ही उपयोग में आया है। कलम तो आदमी ने ही पकड़ी है। शब्द तो आदमी ने बनाए। लेकिन उस आदमी ने, जिसने अपने हाथ को प्रभु के हाथ में दे दिया; जो एक मीडियम बन गया; और कह गया कि लिख डालो। फिर उसने नहीं लिखा।" ____ गीता के तीसरे अध्याय के प्रवचन समाप्त हुए। ओशो ने कर्म-योग की मेधावी टीका की है। इसके पश्चात चौथे और पांचवें अध्याय में कृष्ण ज्ञान-योग का विवेचन करते हैं। और ओशो की विश्लेषक प्रतिभा शिखर पर पहुंचती है। तथापि गीता के सभी प्रवचनों में ओशो आग्रहपूर्वक कहते हैं कि यह ध्यान का विवरण है। ध्यान—आत्म बोध-जिसे वे जीवन भर सिखाते रहे हैं। "स्वाध्याय का सूत्र—अपने अंतस से स्वयं ही परिचित होना-भविष्य में महत्वपूर्ण होता चला जाएगा। और अगर आनेवाली सदी में लोग गीता को पढ़ेंगे, तो शायद स्वाध्याय के सूत्र के कारण ही पड़ेंगे। यद्यपि वह गीता में बहुत स्पष्ट और प्रखर नहीं है, क्योंकि क्षण उसका कोई बहुत उपयोग नहीं था। असल में लोग इतने सरल थे कि दमन बिलकुल कम था। और जब दमन कम होता है, तो स्वाध्याय
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy