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________________ ज्ञान पवित्र करता है - GO न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। से भरा हुआ मन ही कुरूप है, अग्ली है। तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति ।। ३८।। __ जैसे ही वासना उठती मन में, हिंसा उठती है। क्योंकि वासना इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला को पूरा हिंसा के बिना किया नहीं जा सकता। फिर जो पाना है, वह निस्संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने काल से किसी भी तरह पाना है। फिर चाहे कुछ भी हो, फिर उसे पा ही लेना अपने आप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार है। फिर अंधा होता आदमी। जब वासना घनी होती है, तब शुद्धांतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है। | ब्लाइंडनेस पैदा होती है। अंधा होता है। फिर आंख बंद करके दौड़ता पागल की तरह! क्योंकि अकेला ही नहीं दौड़ रहा है; और बहुत अंधे भी दौड़ रहे हैं। कोई और न छीन ले! संघर्ष होता। ला न से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ज्ञान के सदृश कुछ भी वैमनस्य होता। क्रोध होता। घृणा होती। सा नहीं है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र करने वाला कोई स्रोत, । | और मजा यह है कि सफल हो जाए वासना, तो भी फ्रस्ट्रेशन, कोई झरना नहीं है। ज्ञान तो भी विषाद हाथ में आता है। और असफल हो जाए वासना, तो ज्ञान की यह जो पवित्र करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की भी विषाद हाथ में आता है। दोनों ही स्थिति में अंततः दुख के आंसू स्वच्छ करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की ट्रांसफार्म करने की, हाथ में पड़ते हैं। रूपांतरित करने की शक्ति है, इसके संबंध में कृष्ण कह रहे हैं। इसे थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि हमारा मन कहेगा, तीन बातें कह रहे हैं। ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। ज्ञान के सदृश नहीं; अगर सफल हो जाए, फिर क्या? फिर तो सब ठीक है! पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। ज्ञान को उपलब्ध हुआ आत्मा में यही है राज कि सफल होकर भी वासना कहीं भी नहीं ठीक प्रवेश कर जाता है। इन तीनों को अलग-अलग समझें। करती। असफल होकर तो करती ही नहीं; सफल होकर भी नहीं अपवित्रता क्या है ? इंप्योरिटी क्या है? अपवित्र क्यों है मनुष्य? करती। कौन-सी है गंदगी उसके प्राणों पर, जो भारी है। कौन-सा है मैंने सुना है कि एक बड़े पागलखाने में एक मनोवैज्ञानिक अस्वच्छ कचरा, जो उसके चित्त पर बोझ है ? कौन-सी अशुचि | अध्ययन के लिए गया है। चिकित्सक ने पागलखाने के, उसे है? कौन है, क्या है, जो उसे रुग्ण और बीमार किए है? पागलों को दिखाया है। एक कोठरी में एक पागल बंद है, जो हाथ मन में जैसे ही उठती है वासना, वैसे ही अशचि प्रवेश कर जाती | में एक तस्वीर लिए है। छाती से लगाता है; फिर देखता है; फिर है। मन में जैसे ही उठती है कामना, वैसे ही मन गंदगी से भर जाता आंस टपकाता है। रोता है, चिल्लाता है। पछा उस मनोवैज्ञानिक ने है। मन में जैसे ही उठी इच्छा कि ज्वर, फीवर प्रवेश कर जाता है। चिकित्सक को पागलखाने के कि क्या हो गया? क्या कारण है उत्तप्त हो जाता है सब। अस्वस्थ हो जाता है सब। कंपनशील हो इसके पागलपन का? चिकित्सक ने कहा. हाथ में जो तस्वीर लिए जाता है सब। कामना ही—डिजायरिंग-कामना ही अशुचि है, | है, वही कारण है। इस स्त्री को प्रेम करता था। यह इसे मिल नहीं अस्वच्छता है, अपवित्रता है। | पाई। इसलिए दुखी और पीड़ित है। दिन-रात छाती पीटता रहता है। देखें; जब भी मन में कुछ चाह उठती है, तब देखें। भीतर से फिर वे आगे बढ़े और दूसरी कोठरी के सामने एक दूसरे सुगंध खो जाती और दुर्गंध शुरू हो जाती है। जब भी मन में कोई | आदमी को बाल नोचते, चेहरे को लहूलुहान करते देखा। पूछा चाह उठती है, तब भीतर से शांति खो जाती और अशांति के वर्तुल | मनोवैज्ञानिक ने, इस आदमी को क्या हुआ है ? उस चिकित्सक ने खड़े हो जाते हैं, भंवर खड़े हो जाते हैं। जब भी मन में कोई चाह | कहा, इस आदमी को वह स्त्री मिल गई, जो उस आदमी को नहीं उठती है, तभी दीनता पकड़ लेती है। आदमी भिखारी की तरह मिल पाई। यह उसकी वजह से पागल हो गया! एक पागल है भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो जाता है, भिक्षु हो जाता है। इसलिए कि जो उसने चाहा था, वह नहीं मिला। एक पागल है जब भी मन में चाह उठती है, तभी दसरे से तलना शरू हो जाती | | इसलिए कि जो उसने चाहा, वह मिल गया है! है; ईर्ष्या निर्मित होती है, जेलेसी। और जेलेसी से ज्यादा गंदी और | ऐसा ही होता है। चाहा हुआ मिल जाए, तो भी पता चलता है, कोई चीज नहीं है चित्त में। जेलेसी, जलन से, प्रतिस्पर्धा से, तुलना कुछ भी नहीं मिला। चाहा हुआ न मिले, तब तो फिर चित्त दुखी 231
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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