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________________ गीता दर्शन भाग-20 कहते हैं, टेस्ट पैदा करना पड़ता है, ट्रेन करना पड़ता है। वे कहते एक तो श्रद्धावान होने का मतलब है, अभिमुखता; श्रद्धा की हैं कि ऐसे थोड़े ही है, यह कोई साधारण चीज थोड़े ही है। यह | तरफ यात्रा; श्रद्धा की तरफ आंखें; श्रद्धा की तरफ चलना, शास्त्रीय संगीत जैसी चीज है। अभ्यास से स्वाद का जन्म होता है। श्रद्धावान होने का अर्थ है। फिर जब पहुंच गए, जब श्रद्धा ही घटित मुंह में कड़वाहट छूट जाती है, छाती तक जलन पहुंच जाती है, | हो जाती है, तब श्रद्धावान नहीं होता आदमी; आदमी ही श्रद्धा होता श्वास की पूरी नली विरोध और बगावत करती है, पहले दिन शराब | | है। तब चित्त श्रद्धावान नहीं होता, तब चित्त श्रद्धा ही हो जाता है। पीने पर। लेकिन अभ्यास से शराब प्रीतिकर हो जाती है। | तब श्रद्धा एक गुण नहीं होती; तब श्रद्धा समग्र अस्तित्व बन जाती सुख भी उत्तेजना, दुख भी उत्तेजना, इसलिए उत्तेजनाएं एक-दूसरे | | है। तब श्रद्धा एक झुकाव नहीं होती–यात्रा नहीं, तीर की तरह में बदल सकती हैं, बदल जाती हैं। | कहीं जाती हुई नहीं-तब श्रद्धा मंजिल होती है। जाती हुई नहीं, शांति, परम शांति वह है, जहां कोई उत्तेजना नहीं है-न सुख ठहरी हुई, खड़ी हुई। नदी की तरह भागती हुई नहीं होती श्रद्धा, फिर की, न दुख की। जहां सुख भी नहीं, जहां दुख भी नहीं, ऐसा जहां | सागर की तरह ठहरी हुई होती है। परम शांत हुआ चित्त, वहीं आनंद फलित होता है, वहीं प्रभु का द्वार | श्रद्धावान, नदी की तरह भागती हुई श्रद्धा का नाम है। श्रद्धा, खुलता है, वहीं परम सत्य में प्रवेश होता है। सागर की तरह ठहराव का नाम है। श्रद्धा, अर्थात पहुंच गए। जितेंद्रिय हुआ, श्रद्धा से युक्त, शांत हुआ मन, परम सत्य, श्रद्धावान, अर्थात पहुंच रहे हैं। दोनों अर्थ हैं। निगूढ सत्य में प्रविष्ट हो जाता है। | पर कष्ण ने अर्जन को जो कहा. वह पहले अर्थ की दष्टि से कहा। दूसरे की बात करनी बेकार है। वहां तो पहुंच जाएंगे। पहला होना चाहिए। यात्रा की बात ठीक है; मंजिल तो आ जाती है। रास्ते प्रश्न : भगवान श्री, श्रद्धा ज्ञान का सहज परिणाम है, की बात ठीक है; मंजिल तो आ जाती है। मंजिल की चर्चा की भी अथवा ज्ञान को उपलब्ध होने के पहले श्रद्धा का होना नहीं जा सकती। मंजिल को कहने का भी उपाय नहीं है। प्रयोजन अनिवार्य है? कृपया इसे समझाएं। भी नहीं है। इसलिए समस्त जानने वालों ने विधि की, मेथड की बात की है, मंजिल की नहीं। मंजिल की तरफ सिर्फ कभी-कभी इशारे हैं। कैसे OT द्धा तो ज्ञान का अंतिम परिणाम है; लेकिन श्रद्धावान | पहुंचे, इसकी बात है। मंजिल की तरफ कभी-कभी इशारा है, सिर्फ 1 होना ज्ञान का पहला चरण है। श्रद्धा तो पूर्णता है। | इसी को समझाने के लिए कि कैसे पहुंचे। इसी को सम इसलिए कृष्ण यह नहीं कह रहे, श्रद्धा; वे कह रहे हैं, कभी-कभी, जैसे कृष्णमूर्ति के मामले में, मंजिल की बात ही श्रद्धावान। श्रद्धावान तो एप्टिटयूड है, वह तो स्वभाव का एक की जाती है और मार्ग की बात छोड़ दी जाती है। तब कृष्णमूर्ति लक्षण है, वह तो बीज है। श्रद्धा तो, पूर्ण श्रद्धा तो उपलब्ध होती | जैसा व्यक्ति भूल जाता है कि सुनने वाले कृष्ण नहीं हैं, अर्जुन हैं। है तब, जब सब जिज्ञासाओं का अंत हो जाता है, जब सब संदेह | और सुनने वाले कृष्ण कभी भी नहीं होंगे; क्योंकि कृष्ण किसलिए गिर जाते हैं। जब जानना घटित होता है, जब जान ही लिया जाता | सुनने आएंगे? है, तब श्रद्धा उपलब्ध होती है। इसलिए इधर कृष्णमूर्ति को पीछे-पीछे बड़ा विषाद मालूम होता लेकिन वह तो अंतिम है; उसकी बात करनी बेकार है। अर्जुन | | है, फ्रस्ट्रेशन भी मालूम होता है। भीतरी, आंतरिक नहीं, अपने लिए से तो बेकार है बात करनी। बुद्ध से बात कर रहे होते कृष्ण, तो | नहीं; लेकिन चालीस साल से जिनसे बोल रहे हैं उनके लिए। करते। अर्जुन से तो श्रद्धावान होने की बात करनी अर्थपूर्ण है। यात्रा करुणापूर्ण है विषाद। विषाद मालूम होता है कि चालीस वर्ष से की मंजिल पर पहला चरण, श्रद्धावान। यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, समझा रहा हं इनको, ये वही के वही लोग। वही सामने हर बार श्रद्धा। वह श्रद्धावान होना ही अंततः श्रद्धा बनती है। वह पहला | आकर बैठ जाते हैं। फिर वही सुन लेते हैं; फिर सिर हिलाते हैं। चरण ही आखिर में मंजिल बन जाती है। इसलिए श्रद्धा के दोनों | फिर वही सवाल पूछते हैं। फिर वही उत्तर पाते हैं। फिर खाली हाथ अर्थ खयाल में रखें। लौट जाते हैं। फिर अगले वर्ष खाली हाथ वापस आ जाते हैं। वही 252
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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