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इंद्रियजय और श्रद्धा
के वही लोग! अगर मरघट पर बोलते होते कृष्णमूर्ति, तो कोई | शिष्य को खोज सकता है। लेकिन गुरु को इतनी कुशलता बरतनी
खास नुकसान न होता। अगर दीवाल से बोलते होते, तो कोई खास नुकसान न होता।
चाहिए कि शिष्य को ऐसा लगे कि उसने ही उसे खोजा है। नहीं तो कठिनाई हो जाती है। कृष्णमूर्ति के साथ यह दिक्कत हो गई।
कृष्णमूर्ति को कभी नहीं लगा कि उन्होंने इनको खोजा है; लीडबीटर और एनीबीसेंट ने ही उनको खोजा है । और वह सब मामला ऐसा हो गया कि गुरुओं के प्रति भी विरोध रह गया और विधि के प्रति भी विरोध रह गया। लीडबीटर को मरे लंबा वक्त हो गया। एनीबीसेंट को मरे लंबा वक्त हो गया । कृष्णमूर्ति के मन से वह बात अब तक जाती नहीं है। वे लड़े चले जाते हैं लीडबीटर से; लड़े चले जाते हैं विधियों से। और मंजिल की बात किए चले जाते हैं। जो सुनने वाले हैं, वे अगर कृष्ण की तरह हों, तब तो ठीक। वे समझ जाएं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं। लेकिन सुनने नहीं आता कृष्ण जैसा आदमी। सुनने अर्जुन जैसा आदमी आता है। | इसलिए सब व्यर्थ हुआ जाता है।
श्रद्धा की बात कर रहे हैं, करनी चाहिए श्रद्धावान की। यह खयाल में लेंगे, तो समझ में आ जाएगा।
कृष्ण श्रद्धावान की बात कर रहे हैं, जितेंद्रिय, श्रद्धावान ! शेष रात में लेंगे।
कृष्णमूर्ति के साथ पहली दफा एक दुर्घटना घट गई और वह दुर्घटना यह है कि वे मंजिल की बात कर रहे हैं, मार्ग की नहीं । वे मंजिल की इतनी बात कर रहे हैं, जितनी मार्ग की करनी चाहिए; और वे मार्ग की इतनी बात कर रहे हैं, जितनी मंजिल की करनी चाहिए। अगर कभी मार्ग के संबंध में कोई शब्द आ जाता है, तो घबड़ाहट से जल्दी वह उसको दूसरी पंक्ति में नष्ट कर देते हैं। मंजिल !
क्या, हो क्या गया? ऐसा अब तक नहीं हुआ था । पृथ्वी पर ऐसा अब तक नहीं हुआ था कि किसी आदमी को ज्ञान की किरण के फूटने के साथ, अंतिम को, मंजिल को, कहने का ऐसा भाव नहीं हुआ था। कृष्णमूर्ति को हुआ । होने का कुछ विशेष कारण है।
कृष्णमूर्ति को दूसरे लोगों ने साधना करवाई; खुद नहीं की । कृष्णमूर्ति को दूसरे लोगों ने, लीडबीटर ने, एनीबीसेंट ने साधना करवाई। कृष्णमूर्ति पर साधना जैसे बाहर से आई। भीतर सत्व था, भीतर पिछले जन्म तक आ गई संभावना थी। भीतर मौजूद था। क्योंकि अकेले बाहर से कुछ करवाया नहीं जा सकता, जब तक भीतर मौजूद न हो। सूखी लकड़ी थी भीतर, बाहर से पकड़ाई गई आग पकड़ गई। लेकिन पकड़ाई गई बाहर से। और जब भी कोई चीज बाहर से पकड़ाई जाती है, तो मन उसका विरोध करता है। अच्छी से अच्छी चीज का भी विरोध करता है।
इसलिए कृष्णमूर्ति के मन में विधियों के प्रति, मेथड के प्रति एक अनिवार्य विरोध पैदा हो गया। वे बाहर से पकड़ाए गए उन्हें । गुरुओं के प्रति एक विरोध पैदा हो गया; क्योंकि गुरु उनको ऊपर से थोपे हुए मिले। चुने हुए नहीं थे, खोजे नहीं थे उन्होंने । अगर कोई आदमी खुद गुरु खोजता है, तो गुरु कभी दुश्मन नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन अगर गुरु किसी को खोज ले, तो झंझट हो जाती है। हालांकि मजा यह है कि जब गुरु खोजता है, तो ठीक से खोजता है । और शिष्य जब खोजता है, तो गलत खोजता है। लेकिन अपनी गलत खोज भी ठीक मालूम पड़ती है, दूसरे की ठीक खोज भी गलत मालूम पड़ती है।
शिष्य कैसे खोजेगा गुरु को ? अगर गुरु को खोजने की योग्यता हो, तो परमात्मा को खोजने में कोई बाधा नहीं है। जितनी योग्यता से गुरु खोजा जाता है, उतनी योग्यता से परमात्मा खोजा जा सकता है। इसलिए शिष्य कभी गुरु को खोज नहीं सकता। हमेशा गुरु ही
अब जो श्रद्धावान हैं, वे थोड़ा कीर्तन में डूब जाएं। जो अश्रद्धावान हैं, वे बिलकुल चुपचाप चले जाएं। जो मध्य में हैं, वे | बैठकर थोड़ी ताली बजाते रहें।
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