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________________ गीता दर्शन भाग-20 उसको उपलब्ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में | आकर होगा। दूर के निर्णय अंतिम नहीं माने जा सकते। गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठित हो | सुख जब तक नहीं मिलता, तब तक तो सुख मालूम पड़ता है। जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत से च्युत हो जाती है। बस, लेकिन मिलते से किसे मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर किसे इतना ही। मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर अचानक लगता है कि खो गया। लेकिन मजबूरी है-चाहे शिव की हो, और चाहे कृष्ण की हो, निश्चित ही, पास का निर्णय ही अंतिम निर्णय है। या किसी और की हो—वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती है। आपने भी अपनी जिंदगी में बहुत सुख पाए होंगे, लेकिन पाकर फिर-फिर कहनी पड़ती है। कहनी पड़ती है इसलिए, इस आशा में | किस सुख को सुख पाया! पा भी नहीं पाते कि दूसरे सुख की कि शायद इस मार्ग से खयाल में न आया हो, किसी और मार्ग से तलाश शुरू कर देते हैं। क्यों कर देते हैं? अगर सुख मिल गया, खयाल आ जाए। तो अब ठहरकर उसे भोग लो! सुख तो मिलता नहीं; ठहरकर भोगें एक सूत्र और। क्या? फिर दिखाई पड़ता है, कल, भविष्य में; फिर दौड़ते हैं। वहां पहुंचते नहीं कि पाते हैं कि वहां भी खो गया! सुख जब हाथ में आता है, तब निर्णायक रूप से तय होता है कि ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। | सुख नहीं है। और जब तक दूर रहता है, तब तक निश्चित मालूम आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।। २२ ।।। | पड़ता है कि सुख है। इंद्रधनुष जैसा है। दिखाई पड़ता है; लेकिन और जो ये इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले | | इंद्रधनुष के पास मत जाना। वह रेनबो वर्षा में बन जाता है आकाश सब भोग है, वे यद्यपि विषयों पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, | में। कितना सुंदर! मन होता है कि बांधकर घर के बैठकखाने में तो मी निस्संदेह दुख के ही हेतु है, और आदि-अंत वाले | लगा लें। जाना मत। वहां जाकर कुछ भी नहीं मिलेगा। अर्थात अनित्य है। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी अगर पहुंच गए इंद्रधनुष के पास-पास भी न पहुंच सकेंगे, पुरुष उनमें नहीं रमता। | क्योंकि जैसे-जैसे पास पहुंचेंगे, वह खोने लगेगा-जब पास पहुंचेंगे, तो सिवाय भाप के बादलों के और उनमें से गुजरती सूरज की किरणों के वहां कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई रंग नहीं, कोई रूप यों और वासनाओं के मेल से प्रतीत होने वाले सुख नहीं, कोई आकार नहीं। लेकिन कितना प्यारा लगता है इंद्रधनुष दूर र अंततः दुख ही हैं। और शुरू होते हैं और समाप्त होते | से! कितना काव्य की तरह आकाश में खिंचा हुआ! कैसा मन हैं; शाश्वत नहीं हैं, सनातन नहीं हैं; सदा साथ रहने करता है कि बांध लो घर में! वाले नहीं हैं। क्षणिक हैं। ऐसा जान लेने वाला पुरुष उनसे मुक्त ध्यान रहे, जहां-जहां इंद्रधनुष दिखाई पड़ते हैं सुख के, होने लगता है। | वहां-वहां यही हालत है। जब पास जाएंगे, तो सिर्फ धुआं ही हाथ दो बातें हैं। एक, जो हमें सुख जैसा भासता है, वह सुख नहीं | में लगता है। कुछ भी हाथ में नहीं मिलता! है। भासता है निश्चित। है नहीं; उससे भी ज्यादा निश्चित। कृष्ण कहते हैं, सुख प्रतीत होता है, सुख है नहीं। ऐसा जो समझ एपियरेंस, भासना किसी चीज का, तब तक पक्का पता नहीं | | लेगा ठीक से, स्वभावतः उसकी वासना उठकर, इंद्रियों से मिलकर चलता, जब तक उसके पास न जाएं। अंधेरी है रात, दूर से देखता आसक्ति बनना बंद कर देगी। हूं, दिखाई पड़ता है कि शायद कोई आदमी खड़ा है। और पास | । दूसरी बात वे कहते हैं, यह भी स्मरण रख अर्जुन, कि यह भी आता हूं, तो लगता है, नहीं, आदमी नहीं है; शायद लकड़ी का | सुख जो कि दिखाई पड़ता है, न होने की हालत में है। अगर कोई कोई डंडा पोता हुआ है! और पास आता हूं, तो लगता है, नहीं, | | इस भ्रम में भी पड़ता हो कि नहीं, है। जैसा कि अज्ञानी को लगता लकड़ी का कोई डंडा नहीं, वृक्ष से कोई कपड़ा लटकता है। | है कि है। वह कहेगा कि कितना ही समझाओ कि नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे पास आता हूं, वैसे-वैसे जो दूर से जाना था, वह मैं कैसे मानूं! मैं कैसे मानूं कि उस बड़े महल में पहुंच जाऊंगा, तो बदलता है। अंतिम निर्णय तो वही होगा, जो ठेठ बिलकुल पास | सुख नहीं होगा? यद्यपि वह कभी नहीं पूछता उस बड़े महल में रहने | 306
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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