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गीता दर्शन भाग-20
इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न पूछना ऐसे पुरुष से। तब सीखने वाला चाहिए झुका हुआ, खुला द्वार, वलनरेबल,
लेकिन प्रश्न पूछने वाले आते हैं; मेरे पास ही आ जाते हैं, तो ताकि कोई चीज उसमें प्रवेश कर सके। कुछ डाला जा सके, तो चारों तरफ देखते हैं कि कहां बैठे? प्रश्न क्या पूछना है! शायद | | झेला जा सके। उलटा पात्र नहीं चाहिए शिष्य का, कि कुछ गिरे, प्रश्न के बहाने कुछ बताने ही चले आए हों।
| तो सब बाहर गिर जाए। सीधा पात्र चाहिए। आज पृथ्वी पर पूछने की कला ही खो गई है। हाउ टु बी ए. बुद्ध कहा करते थे कि कई पात्र ठीक हैं बिलकुल, लेकिन उलटे डिसाइपल, कैसे सीखने वाले बनना, वह बात ही खो गई है। | रखे हैं। उन पर हम डालते हैं, बेकार चला जाता है। कई पात्र सीधे इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं। मूढजन | रखे हैं, लेकिन बिलकुल फूटे हैं। उन पर डालते हैं, बह जाता है। बहुत प्रसन्न होते हैं। इसलिए नहीं कि वे समझ जाते हैं मेरा मतलब पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा न हो। और पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा कि गुरु की जरूरत नहीं; वे समझ जाते हैं कि शिष्य होने की कोई न हो और सीधा हो। जरूरत नहीं। बड़े प्रसन्न होते हैं। उनकी प्रसन्नता देखकर मैं हैरान जब कोई दंडवत करता, तो फूटा पात्र नहीं होता; क्योंकि झुकने होता हूं।
| के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। इसे जरा कठिन लगेगा सोचना कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, जब मैं यह कहता हूं, तो मेरा मतलब झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। झुका तो कमजोर भी सकते होता है कि गुरु को पता ही नहीं होता कि वह गुरु है। लेकिन शिष्य | | हैं, झुकना सिर्फ महाशक्तिशालियों का काम है। झुका लेना तो को पूरा पता होना चाहिए कि वह शिष्य है। क्योंकि शिष्य को अभी किसी को बड़ा आसान है; झुक जाना बड़ा कठिन है। और तब झुक सीखना है; गुरु को अब सीखना नहीं है। गुरु वहां पहुंच गया है, जाना तो आसान है, जब कोई झुकाता हो। तब झुक जांना महान जहां कुछ भी याद रखने की जरूरत नहीं है। शिष्य को अभी बहुत कार्य है, जब कोई झुकाता न हो। कुछ याद रखना है; क्योंकि अभी यात्रा पूरी नहीं हो गई है। कोई गुरु कहे, झुक! डंडे से झुका दे; चार आदमी लगाकर झुका
मुझसे लोग कहते हैं कि आप पहले तो कहते थे, गुरु की कोई दे; तो झुक जाएंगे। लेकिन तब झुकना बहुत आसान है। लेकिन जरूरत नहीं है। और अब आप कहने लगे कि जरूरत है! गर्दन ही झुकाई जा सकेगी, और कुछ भी नहीं झुकेगा। लेकिन जब
तो मैंने कभी नहीं कहा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, इस अर्थ कोई कहता ही नहीं झुकने की कोई बात; कोई आतुर ही नहीं; तब में कि शिष्य की कोई जरूरत नहीं। लेकिन दंभी प्रकृति के व्यक्ति | झुकना, तब सहज, स्पांटेनियस-दंडवत का वही अर्थ है, अपनी इस बात को सुनकर बड़े प्रसन्न होते हैं। गुरु की कोई जरूरत नहीं, | ओर से सब छोड़कर पड़ जाना, सरेंडर्ड, समर्पित।। उसका मतलब यह कि अब किसी से सीखने की कोई जरूरत नहीं। उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो
अब तो हम खुद ही गुरु हो गए! गुरु की कोई जरूरत नहीं, मतलब | कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण में प्रश्न मुमुक्षा हम खुद ही गुरु हैं! तो उन्हें लगता है कि मैं कंट्राडिक्शन करता हूं। बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण में प्रश्न कह देता हूं कभी कि गुरु की जरूरत है!
ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा नहीं है कि जानना जब मैं कहता हूं, गुरु की जरूरत है, तो मैं शिष्यों से कह रहा चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है कि रूपांतरित होना हूं। और जब मैं कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं, तो गुरुडम चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं, क्रांति से गुजरना चाहते चलाने वाले गरुओं से कह रहा है। क्योंकि गरुडम जो चलाता है. हैं. म्यटेशन से जाना चाहते हैं. और हो जाना चाहते हैं। वह तो गुरु होता नहीं। जिसे गुरु होने की धारणा भी पकड़ जाती है, | प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसे बच्चे पूछ लेते। प्रश्न ऐसा नहीं था, वह तो गुरु के योग्य नहीं रह जाता है।
| जैसा वैज्ञानिक पूछता। प्रश्न ऐसा था, जैसा साधक पूछता है। ऐसा ध्यान रहे, गुरु का जिसे खुद खयाल पकड़ जाए कि मैं गुरु हूं, | प्रश्न पूछा जाए, तो ही ज्ञान जिसके जीवन में घटित हुआ, उससे वह गुरु नहीं रह जाता। और जिस शिष्य को यह खयाल न पकड़े | धारा बहनी शुरू होती है। कि मैं शिष्य हूं, वह शिष्य नहीं रह जाता। और ऐसा शिष्य चाहिए, दंडवत का एक और अर्थ आपको स्पष्ट करना चाहूंगा। क्योंकि जिसे पता हो कि वह शिष्य है। और ऐसा गुरु चाहिए, जिसे पता बड़ी भ्रांतियां हैं। मैं निरंतर कहता रहा हूं कि किसी के पैर मत न हो कि वह गुरु है। तब गुरु-शिष्य का मिलन होता है। छुओ। लोग मेरे पैर छू लेते हैं। तो लोग मेरे पास आ जाते हैं कि
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