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________________ चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा 0 होने को राजी है। क्योंकि ह्युमिलिटी में, विनम्रता में ही द्वार खुलता | | समय हो गया। और जहां तक मैं समझता हूं, वे अब आएंगे भी है। जब हम झकते हैं. तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हए नहीं; क्योंकि उत्तर होता, तो कल सांझ को ही दे देते। रातभर में आदमी के द्वार बंद होते हैं। उत्तर खोजेंगे कैसे? कहीं उत्तर रखा हुआ थोड़े ही है कि वे उठाकर इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न पूछता है! ले आएंगे, ढूंढ़ लेंगे, कि तैयार कर लेंगे। अगर अनुभव होता उन्हें, दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन | | तो कल ही कह दिए होते। तो अगर हो इरादा, तो मैं उत्तर दूं। प्रश्न नहीं पूछता है? राजा ने कहा, हद हो गई! तू द्वारपाल; सदा दरवाजे पर खड़ा जो आदमी दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह वह आदमी | रहा। विद्वान हार गए; तू उत्तर देगा! उसने कहा, मैं उत्तर दूंगा। राजा है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि मझे तो खद ही पता ने कहा, भीतर आ; उत्तर दे। उसने कहा, पहले नीचे उतरो सिंहासन है। ऐसे ही पछे ले रहे हैं एक विटनेस के बतौर कि अगर इनको भी | से। मैं सिंहासन पर बैठता हूं। दंडवत करो नीचे। राजा ने कहा, पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। पागल, किस तरह की बातें करता है। उसने कहा. तो फिर. फिर दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है अपने अज्ञान का। । | तुम्हें उत्तर कभी नहीं मिलेगा। जो तुम्हारे चरणों में बैठते हैं, उनसे मैंने सुबह आपसे कहा, अज्ञान का बोध ज्ञान यज्ञ का पहला | | तुम्हें उत्तर कभी भी नहीं मिलेगा। क्योंकि वे उत्तर देने योग्य होते, चरण है। उसको कृष्ण फिर दोहराते हैं। अब वे एक नए रूप से तो तुम्हें चरणों में बिठा लिया होता उन्होंने। उतरो नीचे, उस कहते हैं कि दंडवत करके जो पूछता, झुककर जो पूछता! द्वारपाल ने कहा। एक बहुत मीठी कहानी है। मैंने सुना है, एक सम्राट ने अपने राजा एकदम घबड़ा गया! कोई था भी नहीं। दरबार में कोई था दरबार के बुद्धिमानों को कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि ब्रह्म इस नहीं। कहा, उतर नीचे! जब प्रश्न पूछा है, तो उत्तर देकर रहेंगे। जगत में, कहते हैं लोग, इस भांति समाया है कि जैसे नमक सागर राजा घबड़ाकर नीचे बैठ गया। द्वारपाल सिंहासन पर बैठ गया। के जल में। दिखाओ मुझे, यह समाया हुआ ब्रह्म कहां है? | द्वारपाल ने कहा, दंडवत कर! सिर झुका! राजा ने सिर झुकाया। विद्वान थे दरबार में लोग। लेकिन दरबार में जैसे विद्वान हो और जीवन में पहली बार उसे सिर झुकाने के आनंद का अनुभव सकते हैं, वैसे ही थे। दरबार में कोई ज्ञानी होगा, इसकी आशा तो | दरबार म काइ ज्ञाना होगा, इसकी आशा तो हुआ-पहली बार! मुश्किल है। दरबारी विद्वान थे। सब जगह मिलते हैं। अगर दिल्ली | | सिर अकड़ाए रखने की बड़ी पीड़ा है। लेकिन जिंदगीभर में जाइए तो बहुत हैं। तो दरबारी विद्वान! उनका काम दरबार की | | अकड़ाए रखने से पैरालिसिस हो जाती है। अकड़ ही जाता है। फिर शोभा बढ़ाना। शृंगारिक उपयोग है उनका, डेकोरेटिव। तो सभी | उसको झुकाना हो, तो बड़ी कठिनाई होती है। सम्राट अपने दरबार में विद्वान रखते थे, नहीं तो सम्राट मूढ़ समझा बड़ी मुश्किल से तो झुकाया। लेकिन सिर झुकाकर जब उसके जाए। लेकिन मूढ़ के दरबार में जो विद्वान हों, वे कितने विद्वान पैरों में पड़ रहा, तो उस द्वारपाल ने थोड़ी देर बाद कहा कि अब होंगे, यह समझा जा सकता है। ऊपर भी उठा! पर सम्राट ने कहा, थोड़ी देर रुक। मैंने तो यह सुख विद्वान मुश्किल में पड़े। बहुत समझाने की कोशिश की। बड़े कभी लिया नहीं। थोड़ा रुक। जल्दी नहीं है उत्तर की। उद्धरण दिए। लेकिन सम्राट ने कहा, नहीं, मुझे दिखाओ आधी घड़ी, घड़ी बीतने लगी। द्वारपाल ने कहा, अब सिर निकालकर। जो सभी जगह छिपा हुआ है, थोड़ा-बहुत तो उठाओ। जवाब नहीं लेना है? उस सम्राट ने ऊपर देखा और उसने निकालकर कहीं से दिखाओ! हवा से निकाल दो, दीवाल से | | कहा, जवाब मुझे मिल गया। अकड़ा था, इसीलिए मुझे पता नहीं निकाल दो, मुझसे निकाल दो, खुद से निकाल दो! कहीं से तो | | चला उस ब्रह्म का; आज झुका तो मुझे पता लगा कि कहां खोजता निकालकर थोड़ी तो झलक दिखाओ! मुश्किल में पड़ गए। पर हूं बाहर! जब सब जगह है, तो भीतर भी तो होगा ही। झुके-झुके सम्राट ने कहा, नहीं बता सकोगे कल सुबह तक, तो छुट्टी! फिर मैं उसी में खो गया। उत्तर मुझे मिल गया। तुम मेरे गुरु हो। लौटकर मत आना। बड़ी कठिनाई हो गई। बड़ी कठिनाई हो गई! बिना कहे उत्तर मिल गया! बिना उत्तर दिए उत्तर मिल गया! हुआ द्वारपाल भी खड़ा हुआ सुनता था। दूसरे दिन सुबह जब विद्वान क्या? हंबलनेस, ह्युमिलिटी, विनम्रता गहरे में उतार देती है और नहीं आए, तो उस द्वारपाल ने कहा, महाराज! विद्वान तो आए नहीं; वहां से जो अंतर-ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, वे उत्तर बन जाती हैं। 207
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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