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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-26 दोनों की उम्र थी। उन्होंने मुझसे आकर कहा, हमारा लंबा विवाद क्यूरिआसिटी न हो, जिज्ञासा हो। कुतूहल नहीं है; सच में ही है। अब तक हल नहीं हो पाया। अब तो हम मरने के करीब आ | जानना चाहता है एक आदमी। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, गए. यह विवाद हल होता भी नहीं। न मैं इनकी मानता. न ये मेरी बाई दि वे। ऐसा नहीं चलते थे रास्ते से. पछ लिया. ऐसा नहीं। मानते। आपको हम निर्णायक बनाते हैं। हम दोनों का विवाद हल | सच में ही जानना चाहता है; जानने को बड़ा आतुर है। लेकिन करें। आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है, लेकिन जिससे जानना __ मैंने कहा कि निर्णायक मैं बन जाऊं, लेकिन पहले मेरे दो-तीन चाहता है, उसे इतना भी आदर नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना सवालों का जवाब दे दें। उन्होंने कहा, क्या? मैंने कहा कि अगर यह | चाहता हूं; तो जानने की आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई, तो मैंने ब्राह्मण बूढ़े से पूछा सकती है। कि फिर तुम क्या करोगे? उसने कहा, नहीं; करना क्या है! मैंने कहा वह ऐसा ही है कि एक आदमी बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू कि अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई नहीं, वह है भी | बांधकर खड़ा है नदी के किनारे; लेकिन झुकना नहीं चाहता है कि नहीं। और सृष्टि सदा से है, तो मैंने जैन बूढ़े से पूछा कि फिर तुम्हारे झुके और पानी भर ले तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी इरादे क्या हैं? उसने कहा, कोई और इरादे नहीं हैं. बस यह तय हो। छलांग लगाकर और किन्हीं की चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं जाना चाहिए। मैंने कहा, तुम कितने दिन से इस पर विवाद करते हो? | को ही नदी तक झुकना पड़ता है। जिस विवाद के तय हो जाने का कोई जीवंत परिणाम होने वाला नहीं | इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके। है, वह कुतूहल है। जिस विवाद के कनक्लूसिव हो जाने पर तुम ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई अहंकार में अकड़कर कहते हो, कोई और बात नहीं है, बस यह तय हो जाना चाहिए। | खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी प्रश्न का सार्थक उत्तर प्रयोजन क्या है? होगा क्या? करोगे क्या? पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह अहंकार ही बताता है कि जो __ मैंने उस ब्राह्मण बूढ़े को कहा कि जितना तुमने इनसे विवाद | | झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू भरा नहीं जा सकता। झुके! करने में समय गंवाया, उतनी देर तुमने उस ईश्वर को खोजा जिसने | ___ झुकने में राज क्या है ? झुकने का इतना आग्रह क्या है? सृष्टि बनाई है? उसने कहा कि नहीं; अभी तो इस दिशा में कुछ दंडवत करके प्रतीकात्मक है। दंडवत का मतलब यह नहीं है कि किया नहीं। मैंने कहा, जितने दिन तुम इनसे विवाद कर रहे थे, उतने सच में ही कोई आदमी सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। दिन अगर खोजते, तो शायद वह मिल ही जाता। लेकिन शायद उसे नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि खोजने का कोई सवाल नहीं है। जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले मैंने उस जैन बूढ़े को कहा कि तुम्हें पक्का हो गया है कि प्रभु ने | | द्वार में ही रिसेप्टिविटी, ग्राहकता पैदा होती है। प्रकृति नहीं बनाई; अनादि है सृष्टि; तो इस अनादि सृष्टि के रहस्य | जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है, द्वार बंद को जानने के लिए तुमने क्या किया है? या इस आदमी से विवाद | है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार से पूछी कर रहे हो, इतना जानकर; बस इतना ही उपयोग है इस जानने का? | | गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते हैं, जाओ, कुतूहल! | अभी समय नहीं आया। इसलिए कृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, वह जैसा प्रचलित है, वैसा नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे कभी गहरे उत्तर नहीं मिल नहीं है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला | | शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। तैयार बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने है, सीखने को! शिष्य का बिगड़ा हुआ एक रूप आप देखते हैं, रख सकता है, जो हीरों को पहचान सकते हों। हर किसी के सामने सुनते हैं, सिक्ख। सिक्ख का मतलब है, सीखने को जो तैयार है। हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है, प्रयोजन भी नहीं है। तो | | हालांकि सिक्ख सीखने को तैयार मिलेगा नहीं। सिक्ख होना बहुत जो जानता है, वह कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है। | मुश्किल है। शिष्य होना बहुत मुश्किल है। दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो, इंक्वायरी हो; | शिष्य होने का मतलब है, जो कि सीखने को, झुकने को, विनम्र 206/
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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