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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
जब कोई व्यक्ति अपने को पूरा छोड़ता है, तब एक ही कठिनाई | प्रश्न द्वारा, उस ज्ञान को जान । वे मर्म को जानने वाले है कि वह कहीं भी, रत्तीभर भी बाकी न रह जाए। जब वह बाकी | ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। नहीं रहता, तो वाणी वेद हो जाती है।
वेद कोई ऐसी चीज नहीं कि समाप्त हो गई। वेद कभी समाप्त नहीं होगा। वेद सदा ग्रोइंग है, बढ़ता रहेगा। नए-नए लोग समर्पित कीमती है यह सूत्र। कृष्ण कहते हैं, दंडवत कर प्रश्न पूछ, होकर प्रभु को जब उसके माध्यम बनेंगे, तो फिर वेद, फिर वेद पैदा। प ण तो वे ज्ञानीजन जो जानते, उसे प्रकट कर देते हैं। होता रहेगा। वेद निरंतर जन्म रहा है। वेद जन्मता ही रहेगा।
प्रश्न बहुत तरह से पूछे जा सकते हैं। इसलिए शर्त इस अर्थ में अगर वेद लें, तो फिर अनुवाद ठीक है; अन्यथा | लगाते हैं, दंडवत कर। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि कृष्ण का शब्द ही ठीक है, ब्रह्म मुख से। उसमें झगड़ा नहीं है; आज दंडवत कर प्रश्न पूछने वाला आदमी मुश्किल से कहीं उसमें उपद्रव नहीं है। प्रयोजन इतना ही है कि परमात्मा की निरंतर | मिलता है। ही, निरंतर ही अस्तित्व के गहरे से, जगह-जगह अभिव्यक्तियां हुई __ प्रश्न बहुत तरह से पूछे जाते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न हैं। फूट पड़ी है वाणी। जैसे कोई झरना दबा हो, पत्थर हट जाए | | सिर्फ कुतूहल, क्यूरिआसिटी होते हैं। बच्चे पूछे, माफ किए जा
और फूट पड़े फव्वारे की तरह। ऐसा जब भी कभी अहंकार का | | सकते हैं। बूढ़े पूछे, माफ नहीं किए जा सकते। कुतूहल! पत्थर किसी के हृदय से हटा है, तो झरने फूट पड़े हैं।
बच्चा चल रहा है बाप के साथ, कुछ भी पूछता चलता है। कुछ सबके भीतर छिपा है वेद; पत्थर अहंकार का रखा है ऊपर। हटा | | भी पूछता चलता है, कि घोड़े के दो कान क्यों हैं? और बाप दें पत्थर, फूट पड़ेगा झरना। आपके भीतर ही वेद का जन्म हो | | बुद्धिमान हुआ, तो कुछ भी जवाब देता चलता है। नासमझ हुआ जाएगा। आप जो कहेंगे, वही वेद हो जाएगा।
तो डांटता है; बुद्धिमान हुआ तो कुछ भी जवाब देता चलता है। इस अर्थ में तो ठीक। लेकिन कोई कहता हो, ऋग्वेद, ___ कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी जवाब की अथर्ववेद, सामवेद, इन संहिताओं का नाम वेद है, तो वह भ्रांति | | फिक्र नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक की और अज्ञान की बात कह रहा है। ये वेद हैं जरूर, लेकिन और कुतूहल आगे बढ़ गया होता है। भी वेद हैं। और ब्रह्म मुख से सभी निकला है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म के संबंध में कुछ बहुत कुछ संगृहीत नहीं हुआ। बहुत कुछ संगृहीत नहीं हो बताइए। मैं मिनट दो मिनट और कुछ बात करता हूं, जानकर ही। सका। बहुत कुछ पहचाना नहीं गया। बहुत कुछ आया और खो फिर वे घंटेभर बैठे रहते हैं, फिर दुबारा ब्रह्म की बात ही नहीं पूछते! गया। अनंत-अनंत ऋषियों की वाणी पृथ्वी पर रही और विलीन हो | कुतूहल था। घोड़े के कितने कान होते हैं, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण गई है। टूटा-फूटा संगृहीत है। जो संगृहीत है, वह भी पूरा नहीं है। सवाल नहीं था। सवाल महत्वपूर्ण दिखता था, ब्रह्म-जिज्ञासा का उसमें भी संग्रह करने वालों के हाथों की छाप स्पष्ट है। जो संगृहीत | था। लेकिन कुतूहल था; बस, पूछ लिया था। है, उसमें भी जोड़-तोड़ है। स्वभावतः, आदमी की सीमा है, एक गांव में मैं ठहरा था। दो बूढ़े मेरे पास आए। एक जैन थे, कमजोरी है।
| एक हिंदू ब्राह्मण थे। दोनों पड़ोसी थे, बचपन के साथी थे। और इसलिए किताबों को मैं वेद नहीं कहता। मैं तो वेद ज्ञान को | | निरंतर का विवाद था दोनों के बीच। क्योंकि हिंदू ब्राह्मण कहता था, कहता हूं। जहां भी ज्ञान है, वहीं वेद है, वहीं ब्रह्म बोल रहा है। । | ईश्वर ने सृष्टि बनाई; क्योंकि बिना बनाए कोई चीज कैसे हो सकती
| है! जैन कहता था, कोई बनाने वाला नहीं है; क्योंकि अगर कोई
| बनाने वाला है, तो. फिर तो बनाने वाले का भी बनाने वाला होना तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। | चाहिए! और अगर ईश्वर बिना बनाए हो सकता है, तो सृष्टि ही को उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । । ३४ ।। बनाने वाले की क्या जरूरत है? वह भी बिना बनाए हो सकती है। इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार तो सृष्टि अनादि है, जैन कहता। और हिंदू कहता कि उसका भी दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए । प्रारंभ है परमात्मा से। विवाद उनका लंबा था। कोई साठ के करीब
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