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________________ गीता दर्शन भाग-2 कभी आपने खयाल शायद किया हो, न किया हो; साइकिल चला रहे हों, कार चला रहे हों, अगर एकदम से एक्सिडेंट होने की हालत हो जाए, तो सबसे पहले चोट नाभि पर पड़ती है। साइकिल पर चले जा रहे हैं; एकदम से कोई सामने आ गया, ब्रेक मारा। तो आपके शरीर में जो चोट पड़ेगी, वह नाभि पर पड़ेगी। एकदम से नाभि पर चोट पड़ जाएगी। खतरा आ गया ! खतरे की हालत में जीवन-ऊर्जा को जगने का मौका आ जाता है। ओम ऐसी ध्वनि है, जिसके माध्यम से भीतर से नाभि पर चोट की जाती है। आप ओम की गूंज करें भीतर, तो नाभि पर चोट पड़ने लगती है। हलकी हलकी पड़ती है पहले, फिर तेज होती जाती है। फिर और तेज होती जाती है। फिर ओंकार का शब्द जाकर नाभि पर हथौड़े की तरह पड़ने लगता है, और वह सोई हुई जो चेतना है, उसे जगाता है। अब यह बड़े मजे की बात है। ओम में अ, उ और म हैं । म आप जोर से कहें, तो नाभि पर फौरन कंपन होगा । इस्लाम के पास शब्द है, अल्लाह। सूफी फकीर ओम की तरह अल्लाह शब्द का प्रयोग करते हैं। अल्लाह, तो ह की चोट वहीं पड़ती है, जहां म की पड़ती है। अल्लाह, तो हू की चोट ठीक वहीं पड़ती है नाभि पर, जहां ओम की पड़ती है। अब अल्लाह और ओम बिलकुल अलग-अलग शब्द हैं। लेकिन प्रयोजन एक है, और परिणाम एक है। अर्थ भी एक है। सूफी फकीर अल्लाह से शुरू करता है। अल्लाह, ,फिर लाह, फिर लाहू। और फिर हू ही रह जाता है। और हू की चोट नाभि पर पड़ती है। और नाभि पर सोया हुआ मालिक शुरू होता है। हजार विधियों से योग सोए हुए मालिक को जगाता है। और उस सोए हुए मालिक के जगते ही व्यक्तित्व में इंटीग्रेशन, योग पैदा हो जाता है। खंड इकट्ठे हो जाते हैं। बाजार समाप्त हो जाता है । पंक्तिबद्ध सैनिक खड़े हो जाते हैं । फिर व्यक्तित्व आज्ञा मानता है। बाजार की भीड़ में कोई आज्ञा नहीं मानता। मानने का कोई सवाल भी नहीं है। न कोई आज्ञा देने वाला होता है, न कोई मानने वाला होता है। योगस्थ व्यक्ति अंतर-अनुशासन से भर जाता है, इनर डिसिप्लिन से भर जाता है। एक भीतरी अनुशासन पैदा हो जाता है । फिर वह जो करना चाहता है, वही करता है। जो नहीं करना चाहता है, नहीं करता है। और जैसे ही भीतर का व्यक्ति जागा कि अब तक मैंने जो बातें कहीं, उनसे जो परिणाम होता है, वही इससे भी हो जाता है। स्वाध्याय से जो होता है, स्वधर्म से जो होता है, अंतर्वाणी से जो होता है, अहिंसादिक प्रयोग करने से जो चेतना जगती है, वही योग की विधियों से, मेथडॉलाजी से भी परिणाम हो जाता है। इस परिणाम को योग के मार्ग से लाने की बहुत अनंत विधियां । और एक-एक व्यक्ति को देखकर कि उसके लिए कौन-सी विधि सार्थक होगी, प्रयोग किया जाता है। अब जिस व्यक्ति का नाद कमजोर है या जिस व्यक्ति को नाद का कोई बोध ही नहीं है... । सब व्यक्तियों का नाद-बोध अलग है। आप रास्ते से गुजरें, जिसका नाद - बोध तीव्र है, उसे छोटे-से पक्षी की चहचहाहट भी सुनाई पड़ती है। आपका नाद - बोध तीव्र नहीं है, तो आपको कभी नहीं सुनाई पड़ती कि पक्षी भी चहचहा हैं। जिसका नाद - बोध तीव्र है, उसे मंत्रयोग से जगाने की कोशिश की जाती है। जिसका दृष्टि-बोध तीव्र है, उसे त्राटक, एकाग्रता के | अनंत अनंत प्रयोग हैं, उनसे जगाने की कोशिश की जाती है। यह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि उसका बोध कौन-सा सर्वाधिक तीव्र है। उसके तीव्र बोध के ही मार्ग से उसे गहरे ले जाया जा सकता है। जिनका रंग-बोध तीव्र है, उन्हें रंग के द्वारा भी मार्ग मिल सकता है। लेकिन यह व्यक्ति पर निर्भर करेगा । कृष्ण कहते हैं, योग के द्वारा भी अर्जुन, योग- यज्ञ के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो जाता है। 180 अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।। २९ ।। और दूसरे योगीजन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं। यो 'ग का एक और आयाम इस सूत्र में कृष्ण कहते हैं। मनुष्य के पास अस्तित्व से जुड़े होने के बहुत द्वार हैं; एक द्वार नहीं, अनंत द्वार हैं। हम परमात्मा से बहुत-बहुत भांति से जुड़े हुए हैं। जैसे एक वृक्ष एक ही जड़ से नहीं
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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