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अंतर्वाणी-विद्या
जुड़ा होता पृथ्वी से, बहुत जड़ों से जुड़ा होता है। ऐसे हम भी अस्तित्व से बहुत जड़ों से जुड़े हुए हैं, एक जड़ से नहीं। और इसलिए अस्तित्व तक पहुंचने के लिए किसी भी एक जड़ के सहारे हम प्रवेश कर सकते हैं।
अभी मैंने कहा कि जीवन-ऊर्जा नाभि पर इकट्ठी है; यह एक द्वार है। जीवन-ऊर्जा प्राण पर भी संचालित है; श्वास पर भी । श्वास चलती है, तो हम कहते हैं, व्यक्ति जीवित है। श्वास गई, तो हम कहते हैं, व्यक्ति भी गया। श्वास पर सब खेल है। श्वास से ही शरीर और आत्मा जुड़ी है। श्वास सेतु है । इसलिए श्वास पर भी प्रयोग करके योगीजन उस परम अनुभूति को उपलब्ध हो पाते हैं।
श्वास या प्राण, उसका अपना प्राणयोग है। इसके भी बहुत-बहुत रूप हैं। संक्षिप्त में, थोड़ा-सा सारभूत प्राणयोग के संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
एक तो, श्वास की गति मनोदशा से बंधी है। जैसा होता मन, वैसी हो जाती श्वास की गति | जैसी होती अंतर- स्थिति, श्वास के आंदोलन और तरंगें, वाइब्रेशंस, फ्रीक्वेंसीज बदल जाती हैं। श्वास की फ्रीक्वेंसी, श्वास की तरंगों का आघात खबर देता है, मन की दशा कैसी है।
अभी तो मेडिकल साइंस उसकी फिक्र नहीं कर पाई, क्योंकि अभी मेडिकल साइंस शरीर के पार नहीं हो पाई है ! इसलिए अभी प्राण पर उसकी पहचान नहीं हो पाई। लेकिन जैसे मेडिकल साइंस खून की गति को नापती है; रक्तचाप को, ब्लडप्रेशर को, खून के दबाव को नापती है। जब तक पता नहीं था, तब तक कोई खून के दबाव का सवाल नहीं था । रक्तचाप नई खोज है। रक्त का परिभ्रमण भी नई खोज है।
तीन सौ साल पहले किसी को पता नहीं था कि शरीर में खून चलता है। खयाल था कि भरा हुआ है । चलता है, ऐसा खयाल नहीं था, भरा हुआ है। जैसे बाल्टी में पानी भरा हुआ है, ऐसा आदमी में खून भरा हुआ है। उसमें परिभ्रमण हो रहा है, चल रहा है, इसका पता नहीं था। पता होता भी कैसे? क्योंकि हमें भीतर तो पता चलता नहीं कि खून चल रहा है।
खून के चलने का पता तीन सौ साल पहले ही लग पाया। और जब खून के चलने का पता लगा, तो यह भी पता लगा धीरे-धीरे कि खून का जो चाप है, जो प्रेशर है, वह व्यक्ति के स्वास्थ्य के गहरे अंगों से जुड़ा हुआ है। इसलिए ब्लडप्रेशर चिकित्सक के लिए नापने की खास चीज हो गई।
लेकिन अभी तक भी हम यह नहीं जान पाए कि जैसे ब्लडप्रेशर है, वैसा ब्रेथप्रेशर भी है, वैसा ही वायुचाप भी है। वैसे वायु का | अधिक दबाव और कम दबाव, वायु की गति और तरंगों का आघात-भेद, व्यक्ति की अंतर मनोदशा को परिवर्तित करता है । वह उसकी जीवन-ऊर्जा से संबंधित है। थोड़ी-सी बातें आपको कहूं, तो खयाल में आ जाएगा। जब आप क्रोध में होते हैं, आप खयाल करना, आपकी | श्वास की गति बदल जाती है। वैसी ही नहीं रह जाती, जैसी साधारण होती है। क्यों ? क्रोध में श्वास की गति बदलने की क्या जरूरत है ? इसका मतलब यह भी कि अगर आप श्वास की गति | पर काबू पा लें, तो आप फिर क्रोध पर काबू पा सकते हैं। अगर न बदलने दें श्वास की गति, तो क्रोध आना मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए जापान में वे बच्चों को घरों में सिखाते हैं। वह प्राणयोग का ही एक सूत्र है। वे बच्चों को यह नहीं कहते कि तुम क्रोध मत करो। और मैं मानता हूं कि जापानी इस मामले में सर्वाधिक होशियार हैं और सबसे कम क्रोध करते हैं। सबसे ज्यादा मुस्कुराती कम हैं। और राज प्राणयोग का एक सूत्र है।
मां-बाप बच्चों को परंपरा से घर में यह सिखाते हैं कि जब क्रोध आए, तब तुम श्वास को आहिस्ता लो, धीमे-धीमे लो। गहरी लो | और धीमे लो। स्लोली एंड डीप, धीमे और गहरी । बच्चों को वे यह नहीं कहते कि क्रोध मत करो, जैसा कि हम कहते हैं।
सारी दुनिया कहती है, क्रोध मत करो। क्रोध न करना, हाथ की बात नहीं है इतनी कि आपने कह दिया और बच्चा न करे । और मजा तो यह है कि जो बाप बच्चे को कह रहा है, क्रोध मत करो, अगर बच्चा न माने तो बाप ही क्रोध करके बता देता है कि नहीं मानता ! इतना कहा कि क्रोध मत कर ! वह भूल ही जाता है कि अब हम खुद ही वही कर रहे हैं, हम उसको मना किए थे। क्रोध इतना हाथ में नहीं है, जितना लोग समझते हैं कि क्रोध मत करो। क्रोध इतना वालंटरी नहीं है, नान वालंटरी है। इतना स्वेच्छा में नहीं है, जितना लोग समझते हैं। इसलिए शिक्षा चलती रहती है; कुछ अंतर नहीं पड़ता है!
जापान ज्यादा ठीक समझा। योग का पुराना सूत्र, बुद्ध के द्वारा जापान पहुंचा। बुद्ध ने श्वास पर बहुत जोर दिया। बुद्ध का सारा | योग, कृष्ण जो इस सूत्र में कह रहे हैं, प्राणयोग है।
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इसलिए बुद्ध के सूत्र की गहरी बात अनापानसती योग कही जाती है। आती-जाती श्वास को देखना ही योग है, बुद्ध ने कहा ।