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गीता दर्शन भाग-20
अगर कोई आती-जाती श्वास के राज को पूरा समझ ले, तो फिर | कि ठहर गई, जब लगे कि श्वास का कंपन ही नहीं है, तब आप उसको दुनिया में और कुछ करने को नहीं रह जाता। इसलिए बुद्ध | उस बैलेंस को, उस संतुलन को उपलब्ध होते हैं, जिसकी कृष्ण तो कहते हैं, अनापानसती योग सध गया कि सब सध गया। बात | चर्चा कर रहे हैं। तब ऊपर की श्वास ऊपर और नीच की नीचे रह ठीक कहते हैं। उधर से भी सब सध जा सकता है।
| जाती है। बाहर की बाहर और भीतर की भीतर रह जाती है। और क्रोध आता है, तब आप देखें कि श्वास बदल जाती है। जब एक क्षण के लिए ठहराव आ जाता है। सब ठहर जाता है। न तो आप शांत होते हैं, तब श्वास बदल जाती है, रिदमिक हो जाती है। | बाहर की श्वास भीतर जाती, न भीतर की श्वास बाहर आती। न आप आरामकुर्सी पर भी लेटे हैं, शांत हैं, मौज में हैं, चित्त प्रसन्न ऊपर की श्वास ऊपर जाती, न नीचे की श्वास नीचे जाती। सब है, पक्षियों जैसा हलका है, हवाओं जैसा ताजा है, आलोकित है। ठहर जाता है। तब देखें. श्वास ऐसी हो जाती है. जैसे हो ही नहीं। पता ही नहीं | श्वास के इस ठहराव के क्षण में परम अनुभव की किरण उत्पन्न चलता। बहुत हलकी हो जाती है; न के बराबर हो जाती है। | होती है। श्वास के इस पूरे ठहर जाने में अस्तित्व पूरा संतुलित हो
देखें, जब कामवासना मन को पकड़ती है, सेक्स मन को | | जाता है, संयम को उपलब्ध हो जाता है। फिर कोई मूवमेंट नहीं, पकड़ता है, तो श्वास कैसी हो जाती है ? श्वास एकदम अस्तव्यस्त | आंदोलन नहीं। फिर कोई परिवर्तन नहीं। फिर कोई हेर-फेर नहीं, हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है, जब कामवासना मन में | बदलाहट नहीं, कोई गति नहीं। उस क्षण में आदमी परमगति में
आंदोलित होती है। रक्तचाप बढ़ जाता है; शरीर पसीना छोड़ने | | उतर जाता है या शाश्वत में डूब जाता है या इटरनल, सनातन से लगता है, श्वास तेज हो जाती है और अस्तव्यस्त हो जाती है, | संपर्क साध लेता है। टूट-फूट जाती है।
श्वास का आंदोलन हमारा परिवर्तनशील जगत से संबंध है। प्रत्येक समय भीतर की स्थिति के साथ श्वास जुड़ी है। अगर श्वास का आंदोलनरहित हो जाना, हमारा अपरिवर्तनशील नित्य कोई श्वास में बदलाहट करे. तो भीतर की स्थिति में बदलाहट की जगत से संबंधित हो जाना है। सुविधा पैदा करता है, और भीतर की स्थिति पर नियंत्रण लाने का | | इसलिए श्वास का यह ठहर जाना बड़ी अदभुत अनुभूति है। पहला पत्थर रखता है।
| कोशिश करके ठहराने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि कोशिश प्राणयोग का इतना ही अर्थ है कि श्वास बहुत गहरे तक प्रवेश | करके कभी नहीं ठहरा सकते। अगर आप कोशिश करके किए हुए है, वह हमारी आत्मा को भी छूती है। एक तरफ शरीर को ठहराएंगे, तो भीतर की श्वास बाहर जाना चाहेगी, बाहर की श्वास स्पर्श करती है, दूसरी तरफ आत्मा को स्पर्श करती है। एक तरफ भीतर जाना चाहेगी। जगत को छूती है बाहर, और दूसरी तरफ भीतर ब्रह्म को भी छूती | | कोशिश करके कोई व्यक्ति श्वास को रोक नहीं सकता। हां, है। श्वास दोनों के बीच आदान-प्रदान है—पूरे समय, | | श्वास को आहिस्ता-आहिस्ता प्रशिक्षित किया जा सकता है, सोते-जागते, उठते-बैठते। इस आदान-प्रदान में श्वास का | | रिदमिक किया जा सकता है, तैयार किया जा सकता है लयबद्धता रूपांतरण प्राणयोग है, ट्रांसफार्मेशन आफ दि ब्रीदिंग प्रोसेस। वह | | के लिए। और साथ में अगर कोई ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, जो प्रक्रिया है हमारे श्वास की, उसको बदलना। और उसको | | प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, तो एक बदलने के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो सकता है। | क्षण ऐसा आ जाता है कि प्रशिक्षित श्वास और ध्यान की शांत
जो लोग भी ध्यान का कभी थोड़ा अनुभव किए हैं, उनको पता | | स्थिति का कभी मेल, ट्यूनिंग हो जाती, तो श्वास ठहर जाती है। है। मेरे पास निरंतर लोग ध्यान के प्रयोग के बाद आते हैं। जो गहरा __ और भी एक मजे की बात कि जब श्वास ठहरती है, तब प्रयोग करते हैं, वे कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि श्वास | तत्काल विचार ठहर जाते हैं। बिना श्वास के विचार नहीं चल बंद हो गई, चलती ही नहीं! तो हम बहुत घबड़ा जाते हैं कि इससे | सकते। इसे जरा देखें, कभी ऐसे ही एक सेकेंड को श्वास को कुछ खतरा तो न हो जाएगा।
ठहराकर। अभी यहीं एक सेकेंड श्वास ठहराएं। इधर श्वास घबड़ाने की जरा भी जरूरत नहीं है। घबड़ाएं तब, जब श्वास | | ठहरी, भीतर विचार ठहरे, एकदम ब्रेक! श्वास बिलकुल ब्रेक का बहुत जोर से चले, अस्तव्यस्त, तब घबड़ाएं। जब बिलकुल लगे काम करती है विचार पर।