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गीता दर्शन भाग-20
पड़ रहे हैं रोज। कहीं से आवाज कान में आती। कहीं से आंख में | नान-वालंटरी है, स्वेच्छा के बाहर चलती है। रोशनी आती। कहीं से स्पर्श हाथ को मिलता। कहीं से गंध मिलती। | जैसे खून बह रहा है आपके शरीर में; आपकी स्वेच्छा का कोई कहीं से स्वाद का स्मरण आता। कहीं से कुछ, कहीं से कुछ। | | हिस्सा नहीं है। आपको पता ही नहीं चलता; खून बहता रहता है।
चारों तरफ से अनंत-अनंत आघात पड़ रहे हैं आपके ऊपर। | तीन सौ साल पहले तक तो यह भी पता नहीं था कि शरीर में खून और आपकी वृत्तियां हैं कि तत्काल हर आघात को पकड़ लेती हैं। बहता है। लोग समझते थे, भरा हुआ है; बहता नहीं है! बहने का फिर वासना का और आसक्ति का गहन जाल निर्मित हो जाता है। कोई पता ही नहीं चलता। आपको पता चलता है कि खून बह रहा फिर एक कारागृह बन जाता है भीतर, जिसमें आप बंद होकर जीते है शरीर में? बड़ी गति से बह रहा है! गंगा बहुत धीमी बह रही है। हैं। फिर जिंदगी दुख बन जाती है—मांग, मांग; भीख, भीख! यह जब तक मैंने आपसे यह बात की, आपके पैर में जो खून था, वह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए! और सब मिल जाए, फिर भी सिर में आ गया। तेजी से बह रहा है। सतत गति है खून की। कुछ मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि जब तक एक चीज परिभ्रमण चल रहा है। उसी परिभ्रमण से वह स्वच्छ है, ताजा है। मिल पाती है, तब तक वासना ने नए बीज बो लिए होते हैं और तब यह खून आपकी स्वेच्छा के बाहर है। आपकी इच्छा नहीं चल तक आसक्ति ने नए मार्ग बना लिए होते हैं। इधर मिल नहीं पाता, सकती इसमें, वालंटरी नहीं है। लेकिन योग कहता है कि अगर तब तक आप न मालूम और कितने बीज बो चुके! | थोड़े प्रयोग किए जाएं, तो यह भी स्वेच्छा के भीतर आ जाता है।
फिर यह पूरी जिंदगी वृत्तियों के बीच, जैसे कि पानी की लहरों पर और योग ने इस तरह के प्रयोग करके सारे जगत में दिखा दिए हैं। कोई कागज की नाव पड़ी हो, ऐसी हो जाती है। कागज की नाव | | नाड़ी की गति कम-ज्यादा हो जाती है स्वेच्छा से, थोड़े अभ्यास से। सागर की लहरों पर! हर लहर धकाती है, हर लहर डुबाती है, धक्के | | आप भी थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो सफल हो सकते हैं। बहुत कठिन
और धक्के। फिर पूरा जीवन वृत्तियों की लहरों पर धक्के खाने में | | नहीं है। बीतता है। रोज करो पूरी आसक्ति, और नई आसक्ति निर्मित होती कभी नाड़ी अपनी नाप लें। पाया कि सौ चल रही है एक मिनट चली जाती है। जीवन एक दुख-स्वप्न से ज्यादा नहीं है। में। तब पांच मिनट बैठकर संकल्प करें कि अब एक सौ पांच चले।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अगर आनंद की यात्रा करनी हो, पांच मिनट बाद फिर से नापें। और आप पाएंगे कि अब एक सौ. अगर उस आनंद को पाना हो, जिसे हम प्रभु कहते, परमात्मा पांच नहीं, तो एक सौ तीन तो चलने ही लगी। दो-चार-दस दिन कहते, तो वृत्तियों को ठहराना, जगाना, चेतना को होश से भरना, | में एक सौ पांच चलने लगेगी। फिर कम भी कर सकते हैं। तब वस्तुओं में आकर्षित मत होना, आसक्त मत बनना। | थोड़ी-सी स्वेच्छा के भीतर आ गई। आपने संकल्प का थोड़ा
कैसे टूटेगी लेकिन यह आसक्ति? एक तो मैंने आपसे कहा कि विस्तार किया। जब भी आसक्ति निर्मित हो...।
कुछ चीजें हमारी स्वेच्छा से चलती हैं। यह मेरा हाथ है; ऊपर ध्यान रहे, मन के जगत के लिए एक परम सूत्र आपसे कहता उठाता हूं, नीचे गिराता हूं। मेरी इच्छा से उठता है। न उठाऊं, तो नहीं हं, एक अल्टिमेट फार्मूला, और वह यह है कि मन के जगत में उठता है। अब एक नई बात खोज में आई है और वह यह कि कोई किसी चीज को मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल भी वृत्ति जो स्वेच्छा से उठाई जाती है, एक सीमा के बाद है। मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल है। | नान-वालंटरी हो जाती है। एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है। .. अभी मनोवैज्ञानिक और फिजियोलाजिस्ट, शरीरशास्त्री भी एक समझें, जैसे एक व्यक्ति को कामवासना भर गई। तो कामवासना नियम पर पहुंच गए, जो कि योग की तो बहुत पुरानी खोज है, | | एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है। अगर आप इस स्वेच्छा लेकिन अभी शरीरशास्त्रियों को पहली दफा खयाल में आया। वह | की सीमा के भीतर जाग गए, तो आप कामवासना को शिथिल भी मैं आपसे कहना चाहता हूं। वह यह खयाल में उनको आना | करके वापस सुला देंगे। लेकिन एक सीमा के बाद वह स्वेच्छा के शुरू हुआ, खासकर रूस में पावलव को यह खयाल में आया कि | बाहर चली जाती है। और जो नान-वालंटरी मैकेनिज्म है शरीर का, शरीर में दो तरह के यंत्र एक साथ काम कर रहे हैं। एक तो यंत्र है | | वह पकड़ लेता है। जब नान-वालंटरी मैकेनिज्म पकड लेता है. वालंटरी, स्वेच्छा से चलता है। एक ऐसी यांत्रिक व्यवस्था है, जो जब स्वेच्छा के बाहर का यंत्र पकड़ लेता है, तो फिर आपके हाथ
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