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________________ गीता दर्शन भाग-28 दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम | छोड़कर अपने को, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता की खबर भी नहीं मिलेगी। क्यों? क्या हो गया? असल में समृद्ध | है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को | है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता। | मेरे साथ एक ही जान पाता है, अर्जुन! कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हं, इस घोषणा प्रश्नः भगवान श्री, श्लोक के अंतिम हिस्से में यह का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है। कहा गया है कि इस ज्ञान के द्वारा तू संपूर्ण भूतों को लेकिन यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप देखेगा तथा मेरे में अर्थात है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा सच्चिदानंद रूप में एकीभाव हुआ सब कुछ हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से | सच्चिदानंदमय ही देखेगा। इसका अर्थ और अधिक आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित स्पष्ट करने की कृपा करें। होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती। परम हर्षोन्माद का क्षण है वह-परम हर्षोन्माद का, अल्टिमेट एक्सटैसी का। नाच उठता है फिर रोआं-रोआ; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। ट स ज्ञान में डूबा हुआ, इस ज्ञान में मुक्त हुआ; तू सर्व लेकिन गीत–अनगाए, आदमी के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे र भूतों को सच्चिदानंद रूप देखेगा। नहीं। नृत्य-अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था सर्व भूतों को! भूत का अर्थ होता है, अस्तित्ववान, दि संयोजन नहीं। | एक्झिस्टेंट, जो भी है। जो भी है, अस्तित्व जिसका है, उस सब में एक बाउल फकीर गुजर रहा है बंगाल के किसी गांव से। लोग तू सच्चिदानंद को देखेगा। पत्थर में भी, पृथ्वी में भी, आकाश में इकट्ठे हो गए हैं। बाउल नाच रहा है। तंबूरा बजा रहा है। हाथ ठीक भी; सब ओर, जो भी तू जानेगा, जानेगा सच्चिदानंद रूप है। ' पड़ते नहीं, व्यवस्था नहीं, सुर-संगीत नहीं, पैरों में ताल नहीं। कोई क्यों? ऐसा क्यों होगा? पूछता है, नाचना ठीक से आता नहीं, तो नाचते क्यों हो? बाउल । अभी हम क्या जानते हैं? अभी हमारा जानना क्या है? अभी फकीर कहता है, नाचता नहीं, नचाया जा रहा हूं। व्यवस्था, हमारी प्रतीति क्या है? अभी हमारी प्रतीति है कि जो भी है, सब ताल-सर की खबर कौन रखे? वह बचा ही नहीं. जो व्यवस्था कर पदार्थ है। जो भी है, पदार्थ है, परमात्मा नहीं। पदार्थ दिखाई पड़ता सकता था। अब तो बहा जा रहा हूं। लोग पूछते हैं, ये जो गीत गा है। अगर परमात्मा को कभी हम मान भी लेते हैं, तो वह सिर्फ रहे, इनका अर्थ क्या? वह बाउल कहता है, मुझे पता नहीं। मैं जब मान्यता होती है, अनुभव नहीं होता। दिखता पदार्थ है। तक था, तब तक ये गीत न थे। अब ये गीत हैं, तो मैं नहीं। अर्थ | | एक मित्र को मेरे पास लाए थे। कहने लगे, पदार्थ में भी मुझे कौन बताए? अर्थ जान लोगे उस दिन, जब गीत तुम्हारे भीतर भी परमात्मा दिखता है; पत्थर में भी मुझे परमात्मा दिखता है। दो-चार म भी नाच सको। अनभव ही अर्थ है। दिन मेरे साथ थे। बगीचे में घमते वक्त पत्थर उठाकर मैंने उनके कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में पैर पर दे मारा। कहने लगे, पत्थर क्यों मारा? खून निकल आया! निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन का, होने का। मैंने कहा, कहना था तुम्हें, परमात्मा क्यों मारा? कहते हो, पत्थर मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों क्यों मारा? खून निकल आया; कहना था, परमात्मा निकल आया। अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, पत्थर लगा तो चेहरा और हो जाता है: परमात्मा लगे तो और होना के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना चाहिए था! कहने लगे, इसका यह मतलब थोड़े ही है कि कोई मुझे अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से। पत्थर मार दे! तब तो कोई मेरी हत्या ही कर दे। कल आप गर्दन इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, दंडवत करके, विनम्रता से, पर मेरी छुरी ही चला दें और कहें कि छुरी भी परमात्मा है! 218
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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