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________________ मोह का टूटना मान्यता थी विचारों की। मानते थे कि सब में है, दिखाई नहीं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जब ज्ञान की धारा भीतर बहती है और पड़ता था। दिखाई पड़ना बात और है। हमें तो पदार्थ दिखाई पड़ता मोह का अंधकार टूटता है अर्जुन, तो सर्व भूतों में सच्चिदानंद है। सर्व भूत हमें पदार्थ हैं, मैटीरियल हैं। दिखाई पड़ने लगता है। सर्व भूतों में, सर्व अस्तित्ववान में, जो भी पदार्थ का क्या मतलब होता है? पदार्थ का मतलब होता है, है, फिर वही परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। जिसमें आकार है, निराकार नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, कभी जब ऐसा घटता है, जब सब में परमात्मा दिखाई पड़ने जिसमें वस्तु है, आत्मा नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, जिसका लगता है, तो स्वभावतः जीवन में फिर कहीं दुख नहीं रह जाता, शत्रु अस्तित्व है, व्यक्तित्व नहीं। जो है, अस्तित्ववान, लेकिन जिसका नहीं रह जाता। क्योंकि शत्रु में परमात्मा देखना, तो फिर परमात्मा जीवन नहीं है। हमें क्यों दिखाई पडता है ऐसा? में शत्रु देखना असंभव है। फिर मृत्यु नहीं रह जाती, क्योंकि ___ असल में, हमें वही दिखाई पड़ सकता है, जो हम हैं। हमें भीतर | परमात्मा की मृत्यु असंभव है। फिर कोई धोखा देने वाला नहीं रह भी नहीं मालूम पड़ता कि कोई आत्मा है, कोई परमात्मा है। वह भी जाता, क्योंकि परमात्मा धोखा दे, ऐसी धारणा असंभव है। फिर हमारी मान्यता है। वह भी सुनते हैं, पढ़ते हैं। कोई कहता है, तो सब प्रीतिकर हो जाता है। सब प्रेमपूर्ण हो जाता है। शत्रु भी मित्र समझ लेते हैं। गहरे में हम जानते हैं कि हम शरीर हैं। मैं शरीर हूं, हो जाते हैं। मृत्यु भी जीवन हो जाती है। यही गहरे में हम जानते हैं। जो हम अपने बाबत जानते हैं, उससे | इस अनुभूति को तभी उपलब्ध किया जा सकता है, जब भीतर ज्यादा हम दसरे के बाबत नहीं जान सकते। जितना हम अपने बाबत से मोह टटे। क्यों? क्योंकि मोह की हिप्नोसिस. मोह का सम्मोहन जानते हैं, उससे ज्यादा हम संसार के बाबत नहीं जान सकते। हमारे हमें शरीर बनाए हुए है। शरीर हम हैं नहीं। शरीर भी शरीर नहीं है। अपने स्वानुभव की सीढ़ी ही हमारे परानुभव की सीढ़ी है। लेकिन सम्मोहन हमें बनाए हुए है। मोह, सम्मोह, एक ही बात के • अगर ठीक से समझें, तो जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा दो नाम हैं। जिसको अंग्रेजी में हिप्नोसिस कहते हैं, उसी को सम्मोह उसमें देखते हैं। जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा उसमें देखते कहते हैं, उसी को मोह कहते हैं। हैं। अगर पत्थर में सिर्फ पत्थर दिखाई पड़ता है, तो समझ लेना कि सम्मोह को अगर खयाल में ले लें और सम्मोहन की प्रक्रिया अपने भीतर भी शरीर से ज्यादा का कोई अनुभव नहीं है। को, तो आपको पता चलेगा कि जो हम नहीं हैं, उसकी धारणा बन ठीक भी है। हम जो अपने भीतर नहीं जानते, उसे हम बाहर कैसे जाती है। जान सकते हैं? जिस आदमी के सिर में दर्द नहीं हुआ, आप उससे अगर आपने कभी किसी सम्मोहन करने वाले कुशल व्यक्ति को कहिए कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है; वह भौचक्का खड़ा रह जाता देखा है, तो आप हैरान रह गए होंगे। एक आदमी को सम्मोहित है। वह कहता है, कैसा दर्द? सिर में दर्द होता है कभी? कैसा होता कर दो। सम्मोहित कर दो अर्थात बेहोश कर दो। सुझाव दो, सजेस्ट है? उसे कुछ पता नहीं चलता। पता चले भी कैसे! वही पता चल करो, कि तू बेहोश हो रहा है। और अगर वह कोआपरेट करे, सकता है, जो इसके पहले उसे पता चल चुका हो। हम अपने सहयोग दे, तो बहुत जल्दी बेहोश हो जाएगा। जब बेहोश हो जाए, अनुभव से समझते हैं; उसके अतिरिक्त समझने का कोई उपाय नहीं तब उस आदमी से कहो कि तुम पुरुष नहीं हो, स्त्री हो। वह आदमी है। मानते हैं अपने को शरीर, वही मोह का, अज्ञान का परिणाम | मान लेगा कि स्त्री है। फिर उससे कहो, उठो और चलो; तो वह है। देखते हैं, जगत को पदार्थ। स्त्री की चाल चलेगा, पुरुष की चाल नहीं चलेगा। वह स्त्रियों जैसे जिस दिन ज्ञान की घटना घटती है टटता है मोह का तमस. हाथ मटकाएगा, पुरुषों जैसे हाथ नहीं मटका सकेगा। उसका ढंग टटता है भ्रम शरीर का: बोध होता है स्वयं की चेतना का. चैतन्य | स्त्रैण हो जाएगा। क्या हो गया उसको? का, कांशसनेस का—उसी क्षण सारा जगत चैतन्य हो जाता है। | मान लिया उसके मन ने कि मैं स्त्री हूं, वह स्त्री हो गया। मान उसी क्षण, युगपत! एक क्षण की भी फिर देरी नहीं लगती; एक | लिया उसके मन ने कि वह स्त्री है, वह स्त्री हो गया! उससे आप सेकेंड की भी फिर देरी नहीं लगती। इधर भीतर जाना कि मैं चेतना पूछो सवाल, वह जवाब स्त्रैण देगा। वह स्त्रीलिंग का प्रयोग हूं, आंख खोली कि दिखता है कि सब चेतना है। एक क्षण में सब करेगा। वह कहेगा, मैं जाती हूं। वह नहीं कहेगा, मैं जाता हूं। क्या बदल जाता है, एक क्षण में! हो गया उसे? धारणा पकड़ गई कि मैं स्त्री हूं। मन है बेहोश, 219
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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