SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-20 हाा है? बेहोशी में जो कह दिया गया, वह उसने मान लिया। ज्ञान का अनुभव सच्चिदानंद का अनुभव क्यों कहा जाता बचपन में जैसे ही हम पैदा होते हैं, चारों तरफ की व्यवस्था हमें | सम्मोहित करती है कि तुम शरीर हो। चारों तरफ अज्ञानियों का ज्ञान के अनुभव में तीन प्रतीतियां प्रगाढ़ होकर प्रकट जाल है। मां है, बाप है, भाई है, बहन है, स्कूल है, शिक्षक है, | होती हैं—सत की, चित की, आनंद की। सत का अर्थ है, हूं; मैं सब तरफ जाल है अज्ञानियों का, वह सम्मोहित करता है कि तुम नहीं, सिर्फ हूं। मैं हूं, ऐसा हमारा अनुभव है। ज्ञान के अनुभव में मैं शरीर हो। सब इशारे शरीर की तरफ हैं। | गिर जाता. हं बच रहता। अज्ञान के अनभव में मैं प्रगाढ होता. हे इसलिए जिनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे हैं, वे ज्यादा शरीर सिर्फ पूंछ की तरह सरकता रहता। मैं होता हाथी, हूं होती पूंछ। न हो जाते हैं। स्त्रियां ज्यादा शरीर हो जाती हैं पुरुषों की बजाय; क्योंकि | हो, तो भी चल जाता। पूंछ के बिना हाथी हो सकता। अक्सर होता उनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे होते हैं। वे ज्यादा सचेत हो जाती | है। मैं का हाथी पूंछ के बिना ही होता है। हूं सिर्फ उपयोग होता है हैं, ज्यादा कांशस हो जाती हैं कि शरीर है। फिर शरीर के साथ ही भाषा का। उनकी जिंदगी बंध जाती है; फिर शरीर को भूलना उन्हें मुश्किल हो | जिस दिन अज्ञान टूटता, मैं गिर जाता, हूं बचता। हूं हाथी हो जाता है। गहरे सम्मोहन बैठ जाता है मन में कि मैं शरीर हूं। | जाता-पूंछ भी, सिर भी, सभी कुछ। हूं का अनुभव सत का यह सम्मोहन टूटे न, तो भीतर की आत्मा का अनुभव नहीं | अनुभव है, एक्सपीरिएंस आफ दि एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्व का होता। यह सम्मोहन टूट जाए, तो भीतर की आत्मा का अनुभव अनुभव। होता है। खयाल रखें, जब हम कहते हैं, मैं हूँ; तो लगता है, मैं अलग इस सम्मोहन के टूटने पर जब जाना जाता है कि मैं आत्मा हूं, | हूं और होना अलग है। जब हम कहते हैं, हूं; तो लगता है, होना उसी क्षण जाना जाता है कि सब आत्माएं हैं। सच तो यह है कि यह और मैं एक ही चीज है। कहना कि सब आत्माएं हैं, ठीक नहीं। क्योंकि जिस क्षण जाना | इसीलिए अज्ञानी को मरने का डर लगता है। क्योंकि जो कहता जाता है कि सब आत्माएं हैं, उस क्षण एक ही परमात्मा शेष रह | | है, मैं हूं, उसे डर लगता है कि नहीं हूं भी हो सकता हूं। हूं, तो नहीं जाता है। दो नहीं रह जाते। क्योंकि आकार हों, तो दो हो सकते हैं; हूं भी हो सकता हूं। रात है, नहीं भी हो जाती है। दिन है, नहीं भी निराकार हो, तो एक ही हो सकता है। निराकार दो नहीं हो सकते। हो जाता है। लेकिन है कभी नहीं नहीं होता। तो जिस चीज को हम अगर निराकार दो हों, तो फिर आकार उनमें आ जाएगा, क्योंकि कहते हैं, है; वह नहीं है भी हो सकती है। सिर्फ एक ही चीज है दोनों एक-दूसरे की सीमा बनाएंगे। जहां सीमा बनी, वहीं आकार | जगत में है, है पन, इज़नेस, वह कभी नहीं नहीं होती। हूं का मतलब शुरू हो जाएगा। है, इज़नेस, एमनेस, वह कभी नहीं नहीं होती। निराकार एक है। शरीर अनेक हो सकते हैं, आत्मा एक ही हो सत का अर्थ है, अस्तित्व है, जो कभी नहीं नहीं होता; सनातन, सकती है। उसका कोई आकार नहीं है। तब बाहर और भीतर एक | शाश्वत, नित्य, सदा, सदैव, समय के बाहर। यह अनुभव पहला ही सच्चिदानंद ब्रह्म के दर्शन शुरू होते हैं। होता है, जैसे ही ज्ञान का विस्फोट होता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, मोह की निशा जब टूट जाती | दूसरा अनुभव होता है कि अस्तित्व अकेला अस्तित्व ही नहीं है, और जब ज्ञान की सुबह होती, तो अंधेरे में जिन्हें अलग-अलग | सचेतन भी है। एक्झिस्टेंस एक्झिस्टेंस ही नहीं है, कांशस जाना था, उजाले में वे सब एक मालूम पड़ते हैं। अंधेरे में जिन्हें | एक्झिस्टेंस है—चित, कांशसनेस, चेतन। अस्तित्व सिर्फ पदार्थ जाना था, प्रकाश में वे परमात्मा मालूम पड़ते हैं। अस्तित्व ही हो, तो पदार्थ हो जाएगा। अस्तित्व सचेतन हो, तो परमात्मा हो जाएगा। हमें भी अस्तित्व का पता चलता है। जिनको खयाल है, मैं हूं, उनको भी पता चलता है कि अस्तित्व है। लेकिन प्रश्नः भगवान श्री, ज्ञान के अनुभव को सत, चित, | अस्तित्व सचेतन पता नहीं चलता। जिनको पता चलता है, मैं तो आनंद क्यों कहा जाता है? इसे संक्षिप्त में स्पष्ट करने | नहीं, हूं ही, सिर्फ होना ही है, उनको तत्काल पता चलता है, की कृपा करें। अस्तित्व सचेतन है।
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy