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मोह का टूटना
सब कुछ सचेतन है। निर्जीव, निश्चेतन, कुछ भी नहीं है। हां, कोशिश करके देखें मैं के बिना दुखी होने की, तब आपको पता चेतना के हजार-हजार तल हैं, जिन्हें हम पहचान नहीं पाते। हम | चलेगा। मैं के बिना आप दुखी नहीं हो सकते, इंपासिबल है। कहते हैं, वृक्ष चेतन है, समझ नहीं पड़ता। क्योंकि हम बात नहीं और दुखी हों, तो मैं के बिना नहीं हो सकते। अगर दुखी हैं, तो कर पाते वृक्ष से, बोल नहीं पाते, चर्चा नहीं कर पाते। फिर कैसे | मैं भीतर होगा ही किसी कोने पर; वही दुखी होता है। मैं को लगी माने कि चेतन है? अचेतन लगता है। लेकिन वृक्ष की भी अपनी चोट ही दुख है। मैं के घाव पर पड़ी चोट ही दुख है। और मैं एक भाषा हो सकती है। और अगर वृक्ष की अपनी भाषा हो, तो आदमी | वूड है, घाव है। मैं चीज नहीं है, सिर्फ एक घाव है। अचेतन मालूम पड़ता होगा। क्योंकि आदमी की भाषा उसकी समझ और खयाल किया कि अगर कहीं भी घाव हो, पैर में जरा चोट में नहीं पड़ेगी।
लगी हो, तो दिनभर उसी में चोट लगती है! कभी हैरानी होती है पत्थर है। फिर वृक्ष तो थोड़ा चेतन मालूम पड़ता है-बढ़ता है, | | कि बात क्या है। आज सारी दुनिया की चीजें क्या मेरे पैर के घटता है, खिलता है; तोड़ दो उसकी शाखा, तो मुझता है।। | खिलाफ हो गईं? कल भी इसी दरवाजे से निकला था, तब देहली कुछ-कुछ आदमी की भाषा में पकड़ आता है। पत्थर! फोड़ दो, | | पैर को नहीं लगी! कल भी इसी आदमी से मिला था, लेकिन तब तो कुछ उदासी नहीं आती उसमें; तोड़ दो, तो कुछ पता नहीं | | इसका पैर पैर को नहीं लगा! कल भी भीड़ से गुजरा था, लेकिन चलता। शायद उसकी भाषा और भी फारेन है, और भी विजातीय पैर को भीड़ ने खयाल नहीं किया। आज जहां भी जाता हूं, पैर है, है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, पत्थर भी बोलता है, वृक्ष भी बोलता घाव है। है; वृक्ष भी देखता है, पत्थर भी देखता है। उनकी चेतना का और नहीं; चोट तो रोज लगती थी, लेकिन पता नहीं चलती थी। घाव डायमेंशन है, और तल है।
की वजह से पता चलती है। ' समझ लें, करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी गूंगा है, | मैं एक घाव है, एक बूंड, उसमें पता लगता है पूरे वक्त। जिसका बोलता नहीं, फिर भी हम उसको अचेतन नहीं कहते। क्योंकि हाथ मैं खो गया, उसे चोट का पता नहीं लगता। उसे दर्द, दुख, के इशारे से कुछ बता देता है। हाथ के इशारे से बता देता है, | पीड़ा—आहत अभिमान बड़ी पीड़ा है। सारी पीड़ा वहीं केंद्रित है। इसलिए हम पहचान जाते हैं। क्योंकि गूंगे के पास हाथ हमारे जैसा | मैं गिर गया, दुख गिर गया। निषेधात्मक शर्त पूरी हो गई आनंद के है, और हाथ का इशारा भी हमारे जैसा है, गेस्चर की भाषा हमारी |आने की। एक शर्त पूरी हो गई आनंद के उतरने की कि दुख गिर जैसी है, इसलिए हम पहचान जाते हैं।
गया। दूसरी शर्त, समस्त चैतन्य है जगत अगर, तो आनंद की ___ एक आदमी बहरा है, उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ता, वज्र बहरा है, | पाजिटिव शर्त पूरी हो गई। क्योंकि आनंद हमें तभी मिलता है, जब स्टोन डेफ है, तो हमारे ओंठ ही हिलते मालूम पड़ते हैं उसे। उसे चेतना चेतना से डायलाग में होती है, एक संवाद में होती है। शब्द सुनाई नहीं पड़ता। उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि शब्द __ अच्छी से अच्छी कुर्सी पर बैठे रहें, अच्छे से अच्छे मकान में होता है, कि लोग बोलते हैं। बोलने का उसके लिए मतलब होगा, | रहें अकेले, तो पता चलेगा कि आनंद एक शेयरिंग है, आनंद
ओंठ का चलाना। इसलिए बहरे हमारे ओंठ को समझने लगते हैं | बांटना है। बंटता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता। कि आप क्या बोल रहे हैं। ओंठ का चलाना उनके लिए भाषा होती | फैलता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता। है; ओंठ से निकला हुआ शब्द उनकी भाषा नहीं होती।
इसलिए प्रियजन के पास बैठकर जो आनंद मिलता है, वह ___ जगत हजार आयामी है, अनंत आयामी है। अनंत आयामों पर | स्वर्ण-सिंहासन पर भी नहीं मिलता। क्योंकि स्वर्ण-सिंहासन से
चेतना है। जिस दिन व्यक्ति जानता है अपनी चेतना की गहराई को, | | कोई डायलाग नहीं हो सकता। और अगर स्वर्ण-सिंहासन पर ही उसी दिन वह सारे जगत की चेतना को भी जान लेता है। इसलिए | | किसी को बैठने दिया जाए और शर्त रखी जाए कि स्वर्ण-सिंहासन दूसरा अनुभव होता है चित का, चैतन्य का, सब चैतन्य है। | पर बैठो, स्वर्ण की थालियों में भोजन करो, बहुमूल्य से बहुमूल्य
तीसरा अनुभव होता है आनंद का। तीसरा अनुभव पहले दो | | भोजन होगा, लेकिन आदमी से भर बात नहीं कर सकोगे, तो अनुभवों का अनिवार्य परिणाम है। जिसने जाना कि मैं नहीं है,। आदमी कहेगा कि हम झोपड़े में रहने को तैयार हैं; स्वर्ण-सिंहासन उसका दुख गया, क्योंकि सब दुख मैं के साथ जुड़ा है। आप | | नहीं चाहिए। बात क्या है?