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गीता दर्शन भाग-2
स्वर्ण-सिंहासन से डायलाग नहीं हो सकता। स्वर्ण सिंहासन से कहीं मेल नहीं हो सकता; कहीं दो हृदय नहीं मिल सकते, हार्ट टु हार्ट कोई चर्चा नहीं हो सकती; कुछ बांटा नहीं जा सकता। कुछ लिया-दिया नहीं जा सकता; कोई लेन-देन नहीं हो सकता। और जीवन सदा ही लेन-देन है। जीवन सदा ही, जैसे श्वास आती और जाती है, ऐसा ही है – आना और जाना, पूरे क्षण ।
जब हम एक व्यक्ति को कभी अपने निकट पाते हैं और जब कभी कोई एक व्यक्ति के प्रति हम इतने प्रेम से भर जाते हैं कि उसका शरीर हमें भूल जाता है - और ध्यान रहे, जिसका शरीर न भूले, उससे हमारा प्रेम नहीं है। प्रेम के क्षण में अगर शरीर याद रहे, तो समझना कि काम है, सेक्स है, प्रेम नहीं है। अगर प्रेम के क्षण में शरीर भूल जाए दूसरे का और वह आत्मा ही प्रतीत होने लगे, तो समझना कि प्रेम है।
इसीलिए तो प्रेम में आनंद मिलता है। क्योंकि एक व्यक्ति सचेतन हो जाता है; वस्तु नहीं रह जाता, व्यक्ति हो जाता है। एक आत्मा साथ हो जाती है। दो आत्माएं निकट होकर अपूर्व आनंद
अनुभव करती हैं। दो आत्माओं की निकटता ही आनंद है। लेकिन जब सारा ही जगत आत्मवान हो जाता है, तब तो आनंद का हम क्या हिसाब लगाएं! जब वृक्ष के पास से निकलते हैं, तो वह भी डायलाग होता है। जब वृक्ष के पास खड़े हैं, तो मौन उससे भी मिलन होता है। जब पत्थर के पास होते हैं, तब उससे भी स्पर्श होता है वही, प्रेम का। जब आकाश की तरफ देखते हैं, तो विराट आकाश भी एक बड़ी आत्मा की तरह हम पर झुक आता है और हमें सब तरफ से घेर लेता है। जब सागर की लहरों के पास खड़े होते हैं, तो सागर की आत्मा भी लहरों से हमारी तरफ आती है, उछलती और कूदती हुई दिखाई पड़ती है । जब तारों की तरफ देखते हैं, तो उनसे आती हुई रोशनी भी कुछ संदेश लाती है; पत्रवाहक, वे किरणें भी मैसेंजर्स हो जाती हैं।
जब चारों तरफ से संदेश मिलने लगते हैं जीवन के और आत्मा
, तो सब तरफ चैतन्य का ही अनुभव होता है । जब सब तरफ मिलन घटने लगता है— क्योंकि जहां शरीर हटा, मिलन ही मिलन है, महामिलन है— उस क्षण आनंद फलित होता है। इसलिए तीसरी बात, दो का परिणाम है। जो दो को उपलब्ध हो गया, , तीसरा तत्काल खिल जाता है फूल की भांति - ब्लिस ।
हमें आनंद का कोई पता नहीं है। हम कभी-कभी जिसको आनंद कहते हैं, वह आनंद नहीं होता, सिर्फ भ्रम होता है। क्योंकि आनंद
तो घटित ही तब हो सकता है, जब मैं न रहे और जब पदार्थ न रहे। दो चीजें मिटें, तो आनंद घटित होता है। अहंकार मिटे और पदार्थ मिटे भीतर मिटे अहंकार, बाहर मिटे पदार्थ; भीतर हो आत्मा, बाहर हो आत्मा, भीतर हो चैतन्य, बाहर हो चैतन्य- -दोनों के बीच की सारी दीवाल गिर जाए, तब सारा अस्तित्व नाच उठता है।
आनंद! आनंद बहुत अनूठा शब्द है । अनूठा इसलिए कि आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख के विपरीत दुख है । प्रेम के विपरीत घृणा है। क्षमा के विपरीत क्रोध है। जन्म के विपरीत मृत्यु है | आनंद अद्वैतवाची है, उसके विपरीत कोई शब्द नहीं है। आनंद के विपरीत कोई स्थिति भी नहीं है।
सुख आता है, तो जानना कि दुख आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। दुख आए, तो घबड़ाना मत; जानना कि सुख | आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। सुबह आए, तो डरना मत; सांझ आएगी। सांझ आए, तो डरना मत; सुबह आएगी। विपरीत का वर्तुल है, पोलेरेटीज, ध्रुवीय, घूमता रहता है। घड़ी के कांटे की तरह है । फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। घड़ी के कांटे बारह पर मिलते हैं एक | सेकेंड को एक हो जाते, अद्वैत हो जाता एक सेकेंड को । हो भी नहीं पाया, कि द्वैत शुरू हो जाता है।
आनंद द्वैत का अंत है; फिर द्वैत कभी शुरू नहीं होता । आनंद सुख नहीं है। सुख की कोई बहुत बड़ी मात्रा भी नहीं है आनंद । सुख का कोई बहुत गहन और घना, डेंस रूप भी नहीं है आनंद । आनंद का सुख से कोई संबंध नहीं है; उतना ही संबंध है, जितना दुख से है। आनंद न दुख है, न सुख। जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, | वहां जो घटित होता है, वह आनंद है।
दुख के लिए भी अहंकार चाहिए, सुख के लिए भी अहंकार चाहिए। आनंद के लिए अहंकार नहीं चाहिए। दुख के लिए भी | पदार्थ चाहिए, सुख के लिए भी पदार्थ चाहिए। आनंद के लिए पदार्थ बिलकुल नहीं चाहिए ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जैसे ही ज्ञान की यह घटना घटती है, | वैसे ही सच्चिदानंद रूप — सत, चित, आनंद रूप में लीन हो जाता है व्यक्ति !
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इसलिए परमात्मा के लिए जो निकटतम शब्द है आदमी के पास, वह सच्चिदानंद है। निकटतम, कम से कम गलत। गलत तो | होगा ही; कम से कम गलत । गलत होगा ही; क्योंकि हमारा यह | शब्द भी तीन की खबर लाता है, और वहां एक है। इससे लगता है