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संशयात्मा विनश्यति
मिलता, अशुभ में सफल होकर भी कुछ नहीं मिलता और शुभ में असफल होकर भी बहुत कुछ मिलता है। शुभ मार्ग पर असफल हुआ भी बहुत सफल है। अशुभ के मार्ग पर सफल हुआ भी बिलकुल असफल है। नहीं; जीवन के अंत में कुछ हाथ आता नहीं है।
सिकंदर मरा। जिस गांव में उसकी अर्थी निकली, गांव के लोग चकित हुए, उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके हुए थे। लोग पूछने लगे, ये हाथ बाहर क्यों हैं? कभी किसी अर्थी के बाहर हाथ नहीं देखे! तो पता चला कि सिकंदर ने मरते समय अपने मित्रों को कहा, मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, रिवाज नहीं ऐसा । हमने कोई अर्थी के हाथ बाहर लटके नहीं देखे ! सिकंदर ने कहा, न हो रिवाज। बेईमान रहे होंगे वे लोग, जिन्होंने हाथ अर्थी के भीतर रखे। मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, कैसी बातें करते हैं! क्या फायदा होगा ? मतलब क्या ? प्रयोजन क्या ? सिकंदर ने कहा, मैं चाहता हूं कि लोग ठीक से देख लें, मैं खाली हाथ जा रहा हूं। वह जिंदगीभर जो मैंने इकट्ठा किया, उससे हाथ भरे नहीं ।
सफल बहुत था सिकंदर। कम ही लोग इतने सफल होते हैं। पर मरते क्षण सिकंदर को यह खयाल कि मेरे हाथ खाली लोग देख लें; समझें कि सिकंदर भी असफल गया है - रिक्त, खाली हाथ ।
असफलता भी शुभ के मार्ग पर बड़ी सफलता है । साधु के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी बंधे हाथ जाता है; बहुत कुछ लेकर जाता है। कम से कम अपने को लेकर जाता है। आत्मा को विनष्ट करके नहीं जाता; आत्मा को निर्मित करके, सृजन करके, क्रिएट करके जाता है। इस पृथ्वी पर इस जीवन में उससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है कि कोई अपने को पूरा जानकर और पाकर जाता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, संशय विनाश कर देता है अर्जुन! और अर्जुन बड़े संशय से भरा हुआ है। अर्जुन एकदम ही संशय से भरा हुआ है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, क्या करे, क्या न करे ! बड़ा डांवाडोल है उसका चित्त | अर्जुन शब्द का भी मतलब डांवाडोल होता है। ऋजु कहते हैं सरल को, सीधे को; अऋजु कहते हैं इरछे-तिरछे को, विषम को ।
जो भी डांवाडोल है, इरछा-तिरछा होता है। वह ऐसे चलता है, जैसे शराबी चलता है। एक पैर इधर पड़ता है, एक पैर उधर पड़ता है। कभी बाएं घूम जाता है, कभी दाएं घूम जाता है। गति धी नहीं होती।
निःसंशय चित्त की गति स्ट्रेट, सीधी होती है। संशय से भरे चित्त की गति सदा डांवाडोल होती है। रखता है पैर, नहीं रखना चाहता। फिर उठा लेता है। फिर रखता है; फिर नहीं रखना चाहता। अर्जुन वैसी ही स्थिति में है।
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फिर कृष्ण साथ में यह भी कहते हैं, भगवत्प्रेम को उपलब्ध ! जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं । एक, वस्तुओं का प्रेम । जिससे हम सब परिचित हैं। जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर ह वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं । दूसरा, व्यक्तियों का प्रेम | कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं। सिर्फ इसलिए कि आपको अपने को बचाने की सुविधा रहे ! समझें कि दूसरे, मैं तो लाख में एक हूं ही!
नहीं; इस तरह बचाना मत।
एक फ्रेंच चित्रकार सीजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। | यह पूरी पहाड़ी अदभुत है। सीजां ने पूछा, इसके अदभुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण? उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तो तुम रहोगे यहां, पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर एक आदमी से ज्यादा प्रतिदिन नहीं मरता है। सीजां ने जल्दी से पूछा कि आज मरने वाला आदमी मर गया या नहीं ? नहीं तो मैं भागूं ।
आदमी अपने को बचाने के लिए बड़ा आतुर है। तो अगर मैं कहूं, लाख में एक; आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। छोड़ा अपने को। आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, खयाल रखना ।
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लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे, हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा, वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं ।
आज एक मित्र आए संन्यास लेने; पत्नी को साथ लेकर आए। पत्नी को समझाया, कि नहीं, वे घर छोड़कर नहीं जाएंगे। पति ही रहेंगे। पिता ही रहेंगे। संन्यास उनकी आंतरिक घटना है। चिंतित मत होओ। घबड़ाओ मत ! लेकिन उस पत्नी ने कहा कि नहीं, मैं संन्यास नहीं लेने दूंगी। मैंने कहा, कैसा प्रेम है यह? अगर प्रेम गुलामी बन जाए, तो प्रेम है? प्रेम अगर स्वतंत्रता न दे, तो प्रेम है ? प्रेम अगर जंजीरें बन जाए, तो प्रेम है? फिर यह पति व्यक्ति नहीं रहा, वस्तु हो गया; यूटिलिटेरियन; फिर यह व्यक्ति नहीं रहा। फिर पत्नी कहती है, मैं आज्ञा नहीं दूंगी, तो नहीं !
व्यक्ति का सम्मान न रहा, उसकी स्वतंत्रता का सम्मान न रहा;