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गीता दर्शन भाग-26
अंतिम जोड़ हमारे किए हुए का जोड़ कम, हमारे लिए गए निःसंशय | | एक युवक आज संध्या संन्यास लेने के लिए बैठा हुआ था मेरे निर्णय का जोड़ ज्यादा है। जिंदगी के अंत में, जो किया, वह खो पास। एक बार भीतर गया, फिर बाहर आया; फिर उसने कहा कि जाता है; लेकिन जिसने किया, जिस मन ने, करने, और करने, मैं दुबारा भीतर आता है। फिर भीतर आया। फिर कहा कि मैं और
और करने, और निर्णय लेने की क्षमता और संकल्प का बल और जरा बाहर जाकर सोचता हूं। फिर वह कुर्सी पर बैठकर सोचता असंशय रहने की योग्यता इकट्ठी होती चली जाती है। वही अंतिम | | रहा, सोचता रहा! मैं दो-चार बार आस-पास से उसके गुजरा और हमारे हाथ में संपदा होती है। हमारे निःसंशय किए गए निर्णय की | मैंने पूछा, सोचा? उसने कहा कि जरा सोचता हूं। क्षमता ही हमारी आत्मा होती है।
| एक और मजे की बात है। जब क्रोध आता है. तब कभी इतना उस आदमी ने पूछा, मैं भी ऐसा करना चाहता हूं, लेकिन पता | सोचते हैं? जब घृणा आती है कभी, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं चलता कि अवसर कब आता है! तुम्हें कैसे पता चलता है कि | जब वासना उठती है मन में, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं, बुरे
अवसर आता है? और अगर कभी अवसर आता ही है, तो जब | में तो हम बड़े असंशय चित्त से लागू होते हैं। बुरा आ जाए द्वार तक पता चलता है, तब तक जा चुका होता है! तो तुम छलांग कैसे | पर, तो हम कहते हैं, आओ, स्वागत है! तैयार ही खड़े थे द्वार पर लगाते हो पकड़ने को?
हम। शुभ आए, तो बहुत सोचते हैं! तो रथचाइल्ड ने कहा कि मैं छलांग लगाता नहीं, मैं छलांग | यह भी बहुत मजे की बात है कि आदमी बुरे को करने में संशय लगाता ही रहता हूं। जब भी अवसर आए, सवार हो जाता हूं। ऐसा नहीं करता, शुभं को करने में संशय करता है। क्यों? क्योंकि बुरे नहीं कि मैं खड़ा देखता रहता हूं कि अवसर आएगा, तो छलांग को करना पतन की तरह है; पहाड़ से पत्थर की तरह नीचे ढुलकना लगाऊंगा और सवार हो जाऊंगा। क्योंकि जब अवसर आएगा, है। उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। पत्थर तो महज जमीन की कशिश
और जब तक मुझे पता चलेगा, तब तक जा चुका होगा। इस जगत से खिंचा चला आता है। लेकिन शुभ, पर्वत शिखर की चढ़ाई है, में सब क्षणभंगुर है। मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। आई कंटीन्यू गौरीशंकर की। चढ़ना पड़ता है। कदम-कदम भारी पड़ते हैं। और जंपिंग, मैं कूदता ही रहता हूं। कभी भी अवसर आ जाए, अवसर | | जैसे-जैसे शिखर पर ऊपर बढ़ती है यात्रा, वैसे-वैसे भारी पड़ते का घोड़ा, वह मुझे उचकता हुआ ही पाता है। मेरी छलांग लगती हैं। फिर एक-एक बोझ निकालकर फेंकना पड़ता है। अगर बहुत ' ही रहती है। क्योंकि रथचाइल्ड ने कहा, छलांग व्यर्थ चली जाए, | सोना-चांदी ले आए कंधे पर, तो छोड़ना पड़ता है। गौरीशंकर के इसमें कोई हर्ज नहीं है; लेकिन अवसर का घोड़ा खाली निकल | शिखर तक जाने के लिए कंधे पर सोने-चांदी के बोझ को नहीं ढोया जाए, इसमें बहुत हर्ज है।
जा सकता। धीरे-धीरे शिखर तक पहुंचते-पहुंचते सब फेंक देना कृष्ण जब कहते हैं, संशयात्मा विनाश को उपलब्ध हो जाता है, | पड़ता है। वस्त्र भी बोझिल हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही शुभ की यात्रा तो वे और भी गहरे अवसर की बात कर रहे हैं। रथचाइल्ड तो इस है। एक-एक चीज छोड़ते जानी पड़ती है। संसार के अवसरों की बात कर रहा है। कृष्ण तो परम अवसर की | | अशुभ की यात्रा, सब पकड़ते चले जाओ; बीच में पड़े हुए बात कर रहे हैं कि जीवन एक परम अवसर है, इस परम अवसर | पत्थरों के साथ भी आलिंगन कर लो। वे भी लुढ़कने लगेंगे। सब में कोई चाहे तो परम उपलब्धि को पा सकता है-आनंद को, इकट्ठा करते चले आओ। बढ़ाते चले जाओ। कुछ छोड़ना नहीं एक्सटैसी को, हर्षोन्माद को। उस उपलब्धि को पा सकता है कि | पड़ता। पकड़ते चले जाओ, बढ़ाते चले जाओ। और गड्ढे में गिरते जहां सब जीवन का कण-कण नाच उठता और अमृत से भर जाता चले जाओ! जमीन खींचती चली जाती है। है; जहां जीवन का सब अंधेरा टूट जाता; और जहां जीवन के सब क्रोध के लिए कोई सोचता नहीं। अगर कोई आदमी क्रोध के फूल सुवासित हो खिल उठते हैं; जहां जीवन का प्रभात होता है | लिए दो क्षण सोच ले, तो क्रोध से भी बच जाएगा। और दो क्षण और आनंद के गीत का जन्म होता है।
अगर संन्यास के लिए भी सोच ले, तो संन्यास से भी चूक जाएगा। उस परम उपभोग के क्षण को हम चूक रहे हैं प्रतिपल, संशय ___ अशुभ के साथ जितना सोचें, उतना अच्छा। शुभ के साथ के कारण। संशय कठिनाई में डालता है। जब भी कोई अवसर | | जितना निःसंशय हों, उतना अच्छा। आता, हम बैठकर सोचते हैं, करें न करें!
फिर यह भी ध्यान रख लें कि अशुभ को करके भी कुछ नहीं
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