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ॐ गीता दर्शन भाग-20
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काक्षति। कृष्ण कहते हैं निष्काम कर्मयोग की परिभाषा में, कि जो व्यक्ति निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।३।। | राग-द्वेष दोनों के अतीत हो जाता है, वह निष्काम कर्म को उपलब्ध हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है, और न किसी होता है। की आकांक्षा करता है, वह निष्काम कर्मयोगी सदा संन्यासी राग-द्वेष दोनों के द्वंद्व के बाहर जो हो जाता है। लेकिन हम कभी ही समझने योग्य है, क्योंकि रागद्वेषादि द्वंद्वों से रहित हुआ द्वंद्व के बाहर नहीं होते। जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, वे भी द्वंद्व के पुरुष सुखपूर्वक संसाररूप बंधन से मुक्त हो जाता है। बाहर नहीं होते। वे भी केवल विरागी होते हैं। उनका राग उलटा हो
गया होता है। घर को छोड़ते हैं, भागते हैं, घर को पकड़ते नहीं।
धन को त्यागते हैं, छाती से नहीं लगाते। लेकिन त्याग करने में उतने न वन में या तो हम खिंचते हैं किसी से, आकर्षित होते हैं; | | ही आब्सेशन से, उतनी ही तीव्रता से भरे होते हैं, जितना धन को UII या हटते हैं और विकर्षित होते हैं। या तो कहीं हम | | पकड़ने की आकांक्षा से भरे हुए थे। त्याग सहज नहीं, विकर्षण है।
आकांक्षा से भरे हुए बंध जाते हैं, या कहीं हम विपरीत | किसी की तरफ मैं जाऊं, तो भी मैं उससे बंधा हूं। और उससे भागू, आकांक्षा से भरे हुए मुड़ जाते हैं। लेकिन ठहरकर खड़ा | तो भी उससे ही बंधा हूं। जब जाता हूं, तब लोगों को दिखाई पड़ता होना—आकर्षण और विकर्षण के बीच में रुक जाना—न हमें | | है कि बंधा हूं। स्मरण है, न हमें अनुभव है। और आश्चर्य यही है कि न आकर्षण | | विवेकानंद ने कहीं एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि जब से कभी कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है और न विकर्षण | | पहली-पहली बार धर्म की यात्रा पर उत्सुक हुआ, तो मेरे घर का से। दोनों के बीच जो ठहर जाता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है। | जो रास्ता था, वह वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरता था।
राग का अर्थ है, खिंचना; द्वेष का अर्थ है, हटना। साधारणतः | | संन्यासी होने के कारण, त्यागी होने के कारण, मैं मील दो मील का राग और द्वेष विपरीत मालूम पड़ते हैं, एक-दूसरे के शत्रु मालूम | | चक्कर लगाकर उस मुहल्ले से बचकर घर पहुंचता था। उस पड़ते हैं। लेकिन राग और द्वेष की जो शक्ति है, वह एक ही शक्ति मुहल्ले से नहीं गुजरता था। सोचता था तब कि यह मेरे संन्यास का है, दो नहीं। आपकी तरफ मैं मुंह करके आता हूं, तो राग बन जाता | | ही रूप है। लेकिन बाद में पता चला कि यह संन्यास का रूप न' हूं। आपकी तरफ पीठ करके चल पड़ता हूं, तो द्वेष बन जाता हूं। था। यह उस वेश्याओं के मुहल्ले का आकर्षण ही था, जो विपरीत लेकिन चलने वाले की शक्ति एक ही है। जब वह आपकी तरफ | | हो गया था। अन्यथा बचकर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। आता है, तब भी; और जब आपसे पीठ करके जाता है, तब भी। गुजरना भी सचेष्ट नहीं होना चाहिए कि वेश्या के मुहल्ले से
सभी आकर्षण विकर्षण बन जाते हैं। और कोई भी विकर्षण जानकर गुजरें। जानकर बचकर गुजरें, तो भी वही है; फर्क नहीं है। आकर्षण बन सकता है। वे रूपांतरित हो जाते हैं। इसलिए राग-द्वेष विवेकानंद को यह अनुभव एक बहुत अनूठी घड़ी में हुआ। दो शक्तियां नहीं हैं, पहले तो इस बात को ठीक से समझ लेना | जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत में मेहमान थे। विदा जिस चाहिए। एक ही शक्ति के दो रूप हैं। घृणा और प्रेम दो शक्तियां दिन हो रहे थे, उस दिन जिस राजा के मेहमान थे, उसने एक नहीं हैं; एक ही शक्ति के दो रूप हैं। मित्रता और शत्रुता भी दो | स्वागत-समारोह किया। जैसा कि राजा स्वागत-समारोह कर सकता शक्तियां नहीं हैं; एक ही शक्ति की दो दिशाएं हैं।
था, उसने वैसा ही किया। उसने बनारस की एक वेश्या बला ली इसलिए सारा जगत, सारा जीवन, इस तरह के द्वंद्वों में बंटा होता | विवेकानंद के स्वागत-समारोह के लिए। राजा का स्वागत-समारोह है-राग-द्वेष, शत्रुता-मित्रता, प्रेम-घृणा। ये एक ही शक्ति के दो | था; उसने सोचा भी नहीं कि बिना वेश्या के कैसे हो सकेगा!
आंदोलन हैं। और हमारा मन या तो प्रेम में होता है या घृणा में होता | | ऐन समय पर विवेकानंद को पता चला, तो उन्होंने जाने से है। प्रेम सुख का आश्वासन देता है; घृणा दुख का फल लाती है। इनकार कर दिया। वे अपने तंबू में ही बैठ गए और उन्होंने कहा, राग सुख का भरोसा देता है; द्वेष दुख की परिणति बन जाता है। | मैं न जाऊंगा। वेश्या बहुत दुखी हुई। उसने एक गीत गाया। उसने राग आकांक्षा है, द्वेष परिणाम है। ये दोनों एक ही प्रक्रिया के दो | नरसी मेहता का एक भजन गाया। जिस भजन में उसने कहा कि अंग हैं, आकांक्षा और परिणाम।
एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है, एक लोहे का
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