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________________ निष्काम कर्म टुकड़ा कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े | अनमोटिवेटेड एक्शन हो सकता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना | मानने को राजी नहीं हैं कि बिना किसी अंतप्रेरणा के कर्म हो सकता कर दे। अगर पारस पत्थर यह कहे कि मैं देवता के मंदिर में जो पड़ा | है। सब कर्म मोटिवेटेड हैं। सभी कर्मों के पीछे करने की प्रेरणा है लोहे का टुकड़ा, उसको ही सोना कर सकता हूं और कसाई के | होगी ही, अन्यथा कर्म फलित नहीं होगा। कर्म है, तो भीतर घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को सोना नहीं कर सकता, तो वह पारस मोटिवेशन होगा। नकली है। वह पारस असली नहीं है। कृष्ण कहते हैं, कर्म है और भीतर करने का कोई कारण हैउस वेश्या ने बड़े ही भाव से गीत गाया-प्रभुजी, मेरे अवगुण सुखद या दुखद; आकर्षण का या विकर्षण का; राग का या द्वेष चित्त न धरो! विवेकानंद के प्राण कंप गए। जब सुना कि पारस का–अगर कोई भी भीतर कारण है कर्म का, तो कर्म फिर बंधन पत्थर की तो खूबी ही यही है कि वेश्या को भी स्पर्श करे, तो सोना का निर्माता होगा। और अगर कोई कारण नहीं है भीतर, फिर कर्म हो जाए। भागे! तंबू से निकले और पहुंच गए वहां, जहां वेश्या | | फलित हो, तो निष्काम कर्म है। और सुख के मार्ग से व्यक्ति बंधन गीत गा रही थी। उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। विवेकानंद ने | के बाहर हो जाता है। वेश्या को देखा। और बाद में कहा कि पहली बार उस वेश्या को | | लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा कर्म हो नहीं सकता। कर्म मैंने देखा, लेकिन मेरे भीतर न कोई आकर्षण था और न कोई | | होगा, तो आकर्षण से या विकर्षण से। इसलिए इसे थोड़ा गहरे में विकर्षण। उस दिन मैंने जाना कि संन्यास का जन्म हुआ है। समझ लेना जरूरी है। विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है; विपरीत है। पश्चिम की पूरी साइकोलाजी की यह चुनौती है। पश्चिम के वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है कहीं | मनसशास्त्र का यह दावा है कि कर्म तो होगा ही कारण से। अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं अकारण-न राग, न द्वेष; कहीं पहुंचना भी नहीं है, कहीं से बचना से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से | भी नहीं है तो कर्म नहीं होगा। डरता है। अगर यह बात सच है, तो कृष्ण का पूरा विचार धूल में गिर जाता विवेकानंद ने कहा, उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का | | है। फिर उसकी कोई जगह नहीं रह जाती। क्योंकि कृष्ण की सारी जन्म हुआ। उस दिन वेश्या में भी मुझे मां ही दिखाई पड़ सकी। चिंतना इस बात पर खड़ी है कि ऐसा कर्म संभव है। कोई विकर्षण न था। . जिसमें राग और द्वेष न हों, ऐसा कर्म कैसे संभव है ? हम तो यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि द्वंद्वातीत महाबाहो! जिस | जो भी करते हैं, अगर हम अपने किए हुए कर्मों का विचार करें, तो दिन राग और द्वेष दोनों के अतीत कोई हो जाता, उस दिन निष्काम | पश्चिम के मनोविज्ञान का दावा सही मालूम पड़ता है। लेकिन हमारे कर्म को उपलब्ध होता है। कर्म रुग्ण मनुष्यों के कर्म हैं। हमारे कर्मों के ऊपर से निर्णय लेना कठिन मामला मालूम होता है। क्योंकि कर्म हम दो ही कारणों | ऐसे ही है, जैसे दस अंधे आदमियों की आंखों को देखकर यह से करते हैं। या तो आकर्षण हो, तो करते हैं; और या विकर्षण हो, | | निर्णय ले लेना कि जो भी आदमी चलते हैं, वे सब अंधे हैं। क्योंकि तो करते हैं। या तो कुछ पाना हो, तो करते हैं; या कुछ छोड़ना हो, | दस अंधे आदमी चलते हैं। दसों ही अंधे हैं और चलते हैं; इसलिए तो करते हैं। हमारे कर्म की जो मोटिविटी है, जो मोटिवेशन है, | | यह निर्णय ले लेना कि आंख वाला आदमी चलेगा ही नहीं, क्योंकि हमारे कर्म की जो प्रेरणा है, वह दो से ही आती है। या तो मुझे धन | | दस अंधे आदमी चलते हैं, और चलने वाले दसों अंधे हैं! कमाना हो, तो मैं कुछ करता हूं; या धन त्यागना हो, तो कुछ करता | | पश्चिम का मनोविज्ञान एक बुनियादी भ्रांति पर खड़ा है। वह हूं। या तो कोई मेरा मित्र हो, तो उसकी तरफ जाता हूं; या मेरा कोई | | बुनियादी भ्रांति दोहरी है। एक तो यह कि पश्चिम के मनोविज्ञान के शत्रु हो, तो उसकी तरफ से हटता हूं। लेकिन मेरा कोई मित्र नहीं, | | सारे नतीजे बीमार लोगों को देखकर लिए गए हैं, पैथालाजिकल मेरा कोई शत्रु नहीं, तो फिर मैं चलूंगा कैसे? कर्म कैसे होगा? फिर | | हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान ने जिन लोगों का अध्ययन किया है, वे मोटिवेशन नहीं है। यह बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है। | रुग्ण, विक्षिप्त, पागल, न्यूरोटिक हैं। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानने को राजी नहीं हैं कि यह बहुत हैरानी की बात है कि पश्चिम के मनोविज्ञान के सारे 285
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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