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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
और हमारे बीच बाधा है। ऐसा नहीं कि धन की चाह बाधा है; चाह | | नहीं, वहां परमात्मा है। जहां चाह है, वहां संसार है। इसलिए ही–डिजायर एज सच। ऐसा नहीं कि इस चीज की चाह बाधा है। | परमात्मा की चाह नहीं हो सकती। और अनचाहा संसार नहीं हो
और उस चीज की चाह बाधा नहीं है; चाह ही बाधा है। क्योंकि सकता। ये दो बातें नहीं हो सकतीं। चाह ही तनाव है, चाह ही असंतोष है। चाह ही, जो नहीं है, उसकी कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ...। कामना है। जो है, उसमें तृप्ति नहीं। चाह मात्र बाधा है।
अज्ञान का यज्ञ चल रहा है। पूरा जीवन अज्ञान यज्ञ है। फिर इस अगर ठीक से कहें, तो सांसारिक चाह कहना ठीक नहीं, चाह। अज्ञान से ऊबे, थके, घबड़ाए हुए लोग विश्राम के लिए, विराम के का नाम संसार है। वासना संसार है; सांसारिक वासना कहना लिए, धर्म, पूजा, प्रार्थना, ध्यान, उपासना में आते हैं। लेकिन मांगें ठीक नहीं।
उनकी साथ चली आती हैं। चित्त उनका साथ चला आता है। लेकिन हम भाषा में भूलें करते हैं। सामान्य करते हैं, तब तो एक आदमी दूकान से उठा और मंदिर में गया। जूते बाहर छोड़ कठिनाई नहीं आती; चल जाता है। लेकिन जब इतने सूक्ष्म और देता, मन को भीतर ले जाता। जूते भीतर ले जाए, तो बहुत हर्ज नाजुक मसलों में भूलें होती हैं, तो कठिनाई हो जाती है। भूलें भाषा | नहीं, मन को बाहर छोड़ जाए। जूते से मंदिर अपवित्र नहीं होगा। में हैं। भूलें भाषा में हैं, क्योंकि अज्ञानी भाषा निर्मित करता है। और जूते में ऐसा कुछ भी अपवित्र नहीं है। मन? मगर जूते बाहर छोड़ ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है। उसको भी अज्ञानी की भाषा | जाता है और मन भीतर ले जाता है। घर से चलता है, तो स्नान कर का ही उपयोग करना पड़ता है।
लेता है। ज्ञानी की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है; मुखर | ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जूते आप ले जाना! घर से चलता है, नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जबान नहीं है; ज्ञान साइलेंस है, शून्य | स्नान कर लेता है, शरीर धो लेता है। मन? मन वैसे का वैसा है। ज्ञान के पास शब्द नहीं हैं। शब्द उठने तक की भी तो अशांति | बासा, पसीने की बदबू से भरा, दिनभर की वासनाओं की गंध से ज्ञान में नहीं है। इसलिए अज्ञानी की भाषा ही ज्ञानी को उपयोग | | पूरी तरह लबालब, दिनभर के धूल कणों से बुरी तरह आच्छादित! करनी पड़ती है। और फिर भूलें होती हैं।
| उसी गंदे मन को लेकर मंदिर में प्रवेश कर जाता है। __ अब जैसे यह भूल निरंतर हो जाती है। हम कहते हैं, संसार की फिर जब हाथ जोड़ता है, तो हाथ तो धुले होते हैं, लेकिन जुड़े चीजों को मत चाहो। कहना चाहिए, चाहो ही मत, क्योंकि चाह का हुए हाथों के पीछे मन गैर-धुला होता है। आंखें तो परमात्मा को नाम ही संसार है। हम कहते हैं, मन को शांत करो। ठीक नहीं है | | देखने के लिए उठती हैं, लेकिन भीतर से मन परमात्मा को देखने कहना। क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं। अशांति का | के लिए नहीं उठता। वह फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट नाम मन है। जब तक अशांति है, तब तक मन है; जब अशांति आती है। हाथ जुड़ते हैं परमात्मा से कुछ मांगने के लिए। और जब नहीं, तो मन भी नहीं।
भी हाथ कुछ मांगने के लिए जुड़ते हैं, तभी प्रार्थना का अंत हो जाता __ शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; साइलेंट माइंड जैसी कोई | | है। मांग और प्रार्थना का कोई मेल नहीं है। चीज होती नहीं। जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ। अशांत | | फिर प्रार्थना क्या है? प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है, मांग नहीं; मन है. ऐसा कहना ठीक नहीं: अशांति का नाम मन है। डिमांड नहीं, बैंक्स गिविंग; सिर्फ धन्यवाद। जो मिला है, वह इतना
ऐसा समझें, तूफान आया है लहरों में सागर की। फिर हम कहते | | काफी है; उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने जाना चाहिए। हैं, तूफानं शांत हो गया। जब तूफान शांत हो जाता है, तो क्या धार्मिक आदमी वही है, जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है। सागर के तट पर खोजने से शांत तूफान मिल सकेगा? हम कहते अधार्मिक? अधार्मिक वह नहीं, जो मंदिर नहीं जाता; वह तो हैं, तूफान शांत हो गया। तो पूछा जा सकता है, शांत तूफान कहां अधार्मिक है ही। अधार्मिक असली वह है, जो मंदिर मांगने जाता है। है? शांत तूफान होता ही नहीं। तूफान का नाम ही अशांति है। शांत __ कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठतम है, अर्जुन! तूफान ! मतलब, तूफान मर गया; अब तूफान नहीं है। शांत मन का ज्ञान यज्ञ का अर्थ है, वासना के धुएं से मुक्त; जहां चेतना निर्धूम अर्थ, मन मर गया; अब मन नहीं है।
ज्योति की तरह जलती है। निर्धूम ज्योति। धुआं बिलकुल नहीं; चाह के छूटने का अर्थ, संसार गया; अब नहीं है। जहां चाह सिर्फ चेतना की ज्योति रह जाती। ऐसी ज्ञान की ज्योति जब जलती
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