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________________ गीता दर्शन भाग-20 श्रेयान्द्रव्यमयाघज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप। प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं! यज्ञ की सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। ३३ ।। | वेदी के आस-पास घूमता हुआ साधक भी, याचक भी पत्नी मांगता हे अर्जुन, सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से | है, पुत्र मांगता है, गौएं मांगता है, धन मांगता है; यश, राज्य, ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण साम्राज्य मांगता है! यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं, अर्थात ज्ञान उनकी ___ असल में जिसके चित्त में संसार है, उसकी प्रार्थना में संसार ही पराकाष्ठा है। होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है, उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़कर कुरूप हो जाते हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान यज्ञ है। श्रेष्ठतम पान मांगता रहता है संसार को; वासनाएं दौड़ती रहती हैं तो ज्ञान यज्ञ है। और ज्ञान यज्ञ का अर्थ हुआ, जिसमें कोई 01 वस्तुओं की तरफ; शरीर आतुर होता है शरीरों के | सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं है। लिए; आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए ऐसे यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि जब कहते हैं, एक यज्ञ तो जीवन में चलता ही रहता है। यह यज्ञ चिता जैसा है। सांसारिक मांग नहीं, तो अनेक बार मन में खयाल उठता है, तो आग तो जलती है, लपटें तो वही होती हैं। जो हवन की वेदी से गैर-सांसारिक मांग तो हो सकती है न! जब कहते हैं, संसार की उठती हैं लपटें, वे वे ही होती हैं, जो लपटें चिता की अग्नि में उठती | | वस्तुओं की कोई चाह नहीं, तो खयाल उठ सकता है कि मोक्ष की हैं। लपटों में भेद नहीं होता। लेकिन चिता और हवन में तो | | वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को, नहीं जमीन-आसमान का भेद है। | मांगते धन को, नहीं मांगते वस्तुओं को; मांगते हैं शांति को, आनंद हमारा जीवन भी आग की लपट है। लेकिन वासनाएं जलती हैं | | को। छोड़ें, इन्हें भी नहीं मांगते। मांगते हैं प्रभु के दर्शन को, मुक्ति उसमें; उन लपटों में आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन | को, ज्ञान को। जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। ऐसे आग| | तो एक बात और समझ लेनी जरूरी है। सांसारिक मांग तो में जलते हुए जीवन को भी यज्ञ कहा जा सकता है, लेकिन अज्ञान | | सांसारिक होती ही है; मांग ही सांसारिक होती है। वासनाएं का, अज्ञान की लपटों में जलता हुआ। | सांसारिक हैं, यह तो ठीक है। लेकिन वासना मात्र सांसारिक है, इस अज्ञान की लपटों में जलते हए. कभी-कभी मन थकता भी यह भी स्मरण रख लें। है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी। हताशा में, बेचैनी में | शांति की कोई मांग नहीं होती; अशांति से मुक्ति होती है और कभी-कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के शांति परिणाम होती है। शांति के लिए मांगा नहीं जा सकता; सिर्फ साथ, कभी-कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। | अशांति को छोड़ा जा सकता है, और शांति मिलती है। और जो दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ, कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में | | शांति को मांगता है, वह कभी शांत नहीं होता, क्योंकि उसकी शांति आंख बंद कर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। की मांग सिर्फ एक और अशांति का जन्म होती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के इसलिए साधारणतया अशांत आदमी इतना अशांत नहीं होता, एकांत कोने में भी डूब जाने का खयाल उठता है। जितना शांति की चेष्टा में लगा हुआ आदमी अशांत हो जाता है! - लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः | | अशांत तो होता ही है और यह शांति की चेष्टा और अशांत करती वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर | है। यह भी मांग है। यह भी इच्छा है। यह भी वासना है। में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है। क्योंकि बाजार मोक्ष मांगा नहीं जा सकता। क्योंकि जब तक मोक्ष की मांग है, से वह थका है, जागा नहीं; वासना से थका है, जागा नहीं। | जब तक मांग है, तब तक बंधन है। और बंधन और मोक्ष का इच्छाओं से मुक्त नहीं हुआ, रिक्त नहीं हुआ; केवल इच्छाओं से | | मिलन कैसे! मोक्ष मांगा नहीं जा सकता; क्योंकि मांग ही बंधन है। विश्राम के लिए मंदिर चला आया है। उस विश्राम में फिर इच्छाएं । | हां, बंधन न रहे, तो जो रह जाता है, वह मोक्ष है। ताजी हो जाती हैं। हम परमात्मा को चाह नहीं सकते; क्योंकि चाह ही तो परमात्मा 1200
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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