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________________ गीता दर्शन भाग-2 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः । । ११ । । हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे हीं भजता हूं। इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं। य वचन बहुत अदभुत है। कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भांति भजता हूं। और बुद्धिमान पुरुष इस बात को जानकर इस भांति बर्तते हैं। भगवान भजता है! इस सूत्र में एक गहरे आध्यात्मिक रिजोनेंस की, एक आध्यात्मिक प्रतिसंवाद की घोषणा की गई है। संगीतज्ञ जानते हैं कि अगर एक सूने एकांत कमरे में कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा को बजाए और दूसरे कोने में एक वीणा रख दी जाए - खाली, अकेली । कमरे में गूंजने लगे आवाजें एक बजती हुई वीणा की, तो कुशल संगीतज्ञ उस शांत पड़ी हुई वीणा के तारों को भी झंकृत कर देता है; रिजोनेंस पैदा हो जाता है। वह जो खाली पड़ी वीणा है, जिसे कोई भी नहीं छू रहा है, वह भी उस गूंजते संगीत से गुंजायमान हो जाती है। वह भी गूंजने लगती है; उससे भी संगीत का स्फुरण होने लगता है। परमात्मा भी रिजोनेंस है; प्रतिध्वनि देता है। जैसे हम होते हैं, ठीक वैसी प्रतिध्वनि परमात्मा भी हमें देता है। हमारे चारों ओर वही मौजूद है। हमारे भीतर जो फलित होता है, तत्काल उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है; वह दर्पण की भांति हमें लौटा देता है, हमारे प्रतिबिंबों को । कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजता है, उसी भांति मैं भी उसे भजता हूं। जो जिस भांति मेरे दर्पण के समक्ष आ जाता है, वैसी ही तस्वीर उस तक लौट जाती है। परमात्मा कोई मृत वस्तु नहीं है, जीवंत सत्य है। परमात्मा कोई बहरा अस्तित्व नहीं है, कोई डंब एक्झिस्टेंस नहीं है, परमात्मा हृदयपूर्ण है। परमात्मा भी प्राणों के स्पंदन से भरा हुआ अस्तित्व है । और जब हमारे प्राणों में कोई प्रार्थना उठती है और हम परमात्मा की तरफ बहने शुरू होते हैं, तो आप मत सोचना कि यात्रा एक तरफ से होती है। यात्रा दोहरी है। जब आप एक कदम उठाते हैं परमात्मा की तरफ, तब परमात्मा भी आपकी तरफ कदम उठाता है। यह हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता । यह साधारणतः हमारे खयाल में नहीं आता। यह खयाल में हमारे इसीलिए नहीं आता कि हम जीवन की क्षुद्रता में इस भांति उलझे हुए हैं कि उसकी गहरी प्रतिध्वनियों को पकड़ने की क्षमता खो देते हैं। हम इतने शोरगुल में डूबे हुए हैं कि वह जो धीमी-धीमी आवाजें अस्तित्व हमारे पास पहुंचाता है, वे हमें सुनाई नहीं पड़तीं। बहुत स्टिल स्माल वाइस, बड़ी छोटी आवाज है। बड़ी बारीक, महीन आवाज में ध्वनियां हम तक लौटती हैं, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़तीं। हम इतने उलझे होते हैं। कभी खयाल किया हो; आप अपने कमरे में बैठे हैं, खयाल करें, तो पता चलता है कि बाहर वृक्ष पर चिड़िया आवाज कर रही | है। खयाल न करें, तो वह आवाज करती रहती है, आपको कभी पता नहीं चलता। रात के सन्नाटे से गुजर रहे हैं, अपने विचारों में खोए हुए हैं। पता नहीं चलता है कि बाहर झींगुर की आवाज है। होश में आ जाएं, चौंककर जरा रुक जाएं; सुनें, तो पता चलता है कि विराट सन्नाटा आवाज कर रहा है। 48 ठीक ऐसे ही परमात्मा प्रतिपल हमें प्रतिध्वनित करता है, लेकिन झींगुर की आवाज से भी सूक्ष्म है आवाज सन्नाटे की आवाज से भी बारीक है। पक्षियों की चहचहाहट से भी नाजुक है। बहुत चुप | होकर, मौन होकर जो उसे पकड़ेगा, वही पकड़ पाता है। गहरे मौन में, कृष्ण जो कहते हैं, उसका निश्चित ही पता चलता है। यहां उठती है एक ध्वनि, चारों ओर से उसकी प्रतिध्वनि लौट आती है और उसकी हमारे ऊपर वर्षा हो जाती है। मैं एक पहाड़ पर था। कुछ मित्रों के साथ था। उस पहाड़ पर एक | जगह थी इकोप्वाइंट। वहां जाकर आवाज करते, तो पहाड़ियों की घाटियां सात बार उस आवाज को लौटा देतीं। एक मित्र साथ थे, उन्होंने कुत्ते की आवाज में चिल्लाना शुरू | किया। पहाड़ चारों तरफ से कुत्ते की आवाज लौटाने लगे। वे खेल में ही कर रहे थे; पर खेल भी तो खेल नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें और आवाजें करनी भी आती हैं, फिर कुत्ते की आवाज ही क्यों कर रहे हो ? उन मित्र ने कोयल की आवाज करनी शुरू की और पहाड़ की घाटियां कोयल की आवाज से गूंज कर हम पर लौटने लगी। मैंने उनसे कहा, पहाड़ वही लौटा देते हैं, जो हम उन तक |पहुंचाते हैं। सात गुना वापस कर देते हैं। कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में... । जिस रूप में भी हम अपने अस्तित्व के चारों ओर अपने प्राणों
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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