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जीवन एक लीला
आंखें चौंधिया जाती हैं। सच, सूरज की तरफ देखें, तो रोशनी कम | पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर मिलेगी, आंखें बंद हो जाएंगी, अंधेरा हो जाएगा। सूरज को आदमी | | कर्म किया गया है; इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए तभी देखता है, जब ग्रहण लगता है, अन्यथा नहीं देखता कोई।
हुए कर्म को ही कर। अब यह बड़े मजे की बात है! ग्रहण लगे सूरज को लोग देखते हैं। पागल हो गए हैं? सूरज बिना ग्रहण के रोज अपनी पूरी ताकत से मौजूद है; कोई नहीं देखता। ग्रहण लगा कि लोग देखते हैं। क्या
ष्ण कहते हैं, ऐसा जानकर, ऐसा स्पृहा से फल की बात है? ग्रहण लगने से थोड़ा भरोसा आता है, अपन भी देख
मुक्त होकर, कर्ता से शून्य होकर, अहंकार से बाहर सकते हैं। थोड़ा सूरज कम है। अधूरा है। शायद इतने जोर से हमला
होकर, पहले भी पूर्वपुरुषों ने भी कर्म किया है, ऐसा नहीं करेगा।
ही तू भी कर्म कर। इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तियों को कभी भी समझा नहीं जाता; ___ पूर्वपुरुषों ने भी ऐसा ही कर्म किया है, कर्ता से मुक्त होकर। हमेशा मिसअंडरस्टैंड किया जाता है। और जिनको आप समझ लेते | जैसे, जनक। कहीं जनक का नाम भी कृष्ण ने पहले लिया हैं, समझ लेना, केरोसिन की कंदील। अपने घर में जलाई-बुझाई; है—जनकादि। वे कर्म करते रहे हैं कर्ता से मुक्त होकर। यह क्यों अपने हाथ से बत्ती नीची-ऊंची की। जैसी चाही, वैसी की। जब याद दिलाते हैं कृष्ण ? क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि जब तक जैसी चाही, वैसी की। जिनको आप समझ पाते हैं, समझ लेना कि हम फल की स्पृहा करते हैं, तब तक कर्म करते हैं। और जब हम घर के मिट्टी के दीए। जिनको आप कभी नहीं समझ पाते, आंखें कहते हैं फल की स्पृहा नहीं करते, तो हम फिर अकर्म करते हैं। चौंधिया जाती हैं, हजार सवाल उठ जाते हैं, मुश्किल पड़ जाती फिर हम कहते हैं, अब हम जाते हैं। है-समझना कि सूरज उतरा।
दो बातें हमारे लिए संभव मालूम पड़ती हैं। या तो हम फल की इसलिए कृष्ण को हम अभी तक नहीं समझ पाए। न क्राइस्ट को आकांक्षा करेंगे, तो कर्म करेंगे; या फल की आकांक्षा छोड़ेंगे, तो समझ पाए। न बद्ध को, न महावीर को. न मोहम्मद को। इनको | कर्म भी छोड़ेंगे। हम किसी को नहीं समझ पाते। इस तरह के व्यक्ति जब भी पृथ्वी इसलिए दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा पर आते हैं, हमारी आंखें चौंधिया जाती हैं। फिर नहीं समझ पाते, करने वाले गृहस्थ और फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने तो फिर हजारों साल तक समझने की पीछे कोशिश करनी पड़ती है। | वाले संन्यासी। दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा जब वे हट जाते हैं, तब हजारों साल तक; जब आंख के सामने नहीं | के साथ कर्म करने वाले गृहस्थ, फल की आकांक्षा के साथ कर्म रहते, तब हम अपने-अपने मिट्टी के दीए जलाकर और समझने की | भी छोड़ देने वाले संन्यासी-ये एक ही चीज के दो पहलू हैं। कोशिश करते हैं।
गृहस्थ कहता है कि हम कर्म कैसे करें बिना फल की आकांक्षा के? पुनः संस्थापना के लिए!
तो छोड़ देता है। नष्ट नहीं होता धर्म कभी, खो जरूर जाता है। अधर्म कभी ___ कृष्ण बहुत तीसरी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू कर्म तो कर स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। ऐसा समझ में आ सके, तो और फल की आकांक्षा छोड़ दे। आईअस है, बड़ा सूक्ष्म है; पर ठीक। अधर्म कभी स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। धर्म बड़ा रूपांतरकारी है; बड़ा ट्रांसफार्मिंग है। कभी नष्ट नहीं होता, खो जरूर जाता है। उसे पुनः पुनः खोजना __ अगर एक आदमी ने फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ पड़ता है। पुनः-पुनः स्थापित करना पड़ता है।
दिया, तो कुछ भी तो नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता था। एक श्लोक और ले लें।
फल की आकांक्षा के साथ कर्म के छोड़ने में, कुछ भी तो खूबी नहीं है। जैसे फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने में कुछ खूबी नहीं
है, वैसे ही फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने में भी कुछ भी एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । खूबी नहीं है। कोई भी विशेषता नहीं है। कोई भी साधना नहीं है। कुरु कमैव तस्मात्त्वं पूर्वः पूर्वतरं कृतम् ।। १५ । । । यह तो बड़ी आसान बात है। इसमें तो कुछ कठिनाई नहीं है। यह
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