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ज्ञान पवित्र करता है
भी उठता-बैठता, खाता-पीता, बोलता-सुनता। ज्ञानी भी कर्म तो | सुबह झील पर से; सूरज की रोशनी में चमकते वे शुभ्र पंख, झलके करता है। लेकिन ज्ञानी पर कर्म ऐसे हो जाते हैं, जैसे पानी पर खींची | क्षणभर को झील में, और खो गए। न तो बगुलों को पता चला कि गई लकीरें। पानी पकड़ता नहीं है; लकीरें खिंचती हैं, खिंच भी नहीं | झील में प्रतिबिंब पकड़ा गया है, और न झील को पता चला कि पाती कि खो जाती हैं।
बगलों का प्रतिबिंब मैंने पकड़ा है। अज्ञानी पर कर्म ऐसे पकड़ते हैं, जैसे पत्थर पर खींची गई लकीरें।। ऐसा हो जाता है ज्ञानी का मन। सब होता है चारों तरफ, फिर भी खिंच जाती हैं, तो मिटती मालूम नहीं पड़तीं। एक बार खिंच जाती कुछ नहीं होता है। पूरे जीवन के बीत जाने के बाद भी ज्ञानी के पास हैं, तो और गहरी होती चली जाती हैं। फिर लकीर पर लकीर, और | उसके मन में झांको, कुछ भी इकट्ठा नहीं होता है; खाली का लकीर पर लकीर पड़कर पत्थरों पर घाव बना जाती हैं। खाली; रिक्त का रिक्त; शून्य का शून्य। आया-गया सब; भीतर
ज्ञानी पर कर्म ऐसे सरकता है, जैसे पानी पर खींची गई अंगुली, || | कुछ छूट नहीं जाता है। आप खींच भी नहीं पाए और पानी सपाट है-खाली और मुक्त, | ज्ञान की अग्नि कर्मों को जला डालती, इसका अर्थ इतना ही है रेखा से शून्य। लौटकर देखते हैं, रेखा कहीं नहीं है; जल की धार कि ज्ञान की अग्नि में अज्ञान नहीं बचता है। वैसी ही स्वच्छ बही जाती है। कितनी ही खींचें लकीरें, और पानी | कर्म नहीं है असली सवाल; असली सवाल है कर्ता। कर्ता ही सब लकीरों को बहाकर फिर वैसा का वैसा ही हो जाता है। ऐसा कर्म को पकड़ता और इकट्ठा करता है। हम सब कर्ता बन जाते हैं, ही है ज्ञानी।
चौबीस घंटे, ऐसी चीजों के भी, जिनके कर्ता बनना कतई उचित कर्ता का पत्थर भीतर न हो, कर्ता का अहंकार भीतर न हो, तो | नहीं है। कर्म की लकीरें खिंचती नहीं। जल की तरह तरल हो जाता है ज्ञानी; | हम तो यहां तक कहते हैं कि श्वास लेता हूं मैं, जैसे कि कभी खिंचती है पानी पर रेखा, और खो जाती है।
आपने श्वास ली हो! श्वास आती है, जाती है; कोई लेता नहीं। __ कहें कि दर्पण की भांति हो जाता है। कोई आता है सामने, तो | | अगर आप लेते होते, तो दूसरे दिन सुबह फिर कभी उठते ही नहीं। दिखाई पड़ता; दर्पण झलकाता। फिर विदा हो जाता, दर्पण मुक्त | | रात नींद में खो जाते; श्वास कौन लेता फिर? नहीं, श्वास हम नहीं
और खाली और शून्य हो जाता। दर्पण पर कोई रूपरेखा छूट नहीं | | लेते। श्वास आती है, जाती है। जाती।
__ श्वास जैसी जीवन की गहरी प्रक्रिया भी हम नहीं करते हैं। होती अज्ञानी का मन होता है फोटो-प्लेट की तरह, कैमरे के भीतर है। पर आदमी कहता है कि मैं श्वास लेता हूं। हद है! कभी किसी सरकने वाली फिल्म की तरह। जो पकड़ लिया, पकड़ लिया; उसे | | ने श्वास नहीं ली। न कोई कभी श्वास लेगा। श्वास बस आती और फिर छोड़ता नहीं। फोटो के कैमरे में भी आदमी की शकल दिखाई | जाती है। आप ज्यादा से ज्यादा देख सकते हैं, जान सकते हैं। ज्यादा पड़ती है, लेकिन पकड़ी जाती है। दर्पण में भी शकल दिखाई पड़ती | | से ज्यादा भूल सकते हैं, विस्मरण कर सकते हैं; स्मरण रख सकते है, लेकिन पकड़ी नहीं जाती। अज्ञानी का मन पकड़ने में बहुत | | हैं, होश रख सकते हैं, बेहोश हो सकते हैं लेकिन श्वास ले नहीं कुशल है। अज्ञान की वजह से क्लिगिंग गहरी है, पकड़ गहरी है। सकते। ज्ञाता हो सकते, साक्षी हो सकते, द्रष्टा हो सकते-कर्ता जल्दी से मुट्ठी बांध लेता और पकड़ लेता है। इकट्ठा करता चला | नहीं हो सकते हैं। जाता है।
लेकिन हम हर चीज में जोड़ लेते हैं। और गौर से देखते चले ज्ञान की रोशनी आती है, मुट्ठी खुल जाती है। दर्पण हो जाता | | जाएं, तो फिर किसी चीज में नहीं जोड़ पाएंगे। खोजते चले जाएं, है आदमी का मन। फिर कुछ पकड़ता नहीं। पिछले अतीत में देखे | | तो पाएंगे कि कर्ता भ्रम है, दि ग्रेटेस्ट इलूजन। जो बड़े से बड़ा भ्रम गए चित्र भी नहीं पकड़ता, आज देखे जाने वाले चित्र भी नहीं | है, वह कर्ता का भ्रम है। पकड़ता, भविष्य में देखे जाने वाले चित्र भी नहीं पकड़ता। ऐसा | मां कहती है कि मैं बेटे को जन्म देती है। किसी मां ने कभी नहीं हो जाता है ज्ञानी का मन, जैसे बगुलों की कतार सुबह उड़ी हो | दिया। होता है। अगर पति और पत्नी सोचते हों कि हम मिलकर झील के ऊपर से।
| बेटे को जन्म देते हैं, तो प्रकृति उन पर बहुत हंसती है। क्योंकि उनसे एक झेन फकीर बांकेई ने कहा है, उड़ती देखी बगुलों की कतार भी प्रकृति जन्माने का काम लेती है, वे जन्म देते नहीं हैं।
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